बरेली, एबीपी गंगा। चुनावी जंग का आगाज हो चुका है और सियासी लड़ाके एक बार फिर मैदान में हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि किसके सिर सजेगा जीत का सहेरा। क्या बीजेपी एक बार फिर रिकॉर्ड जीत दर्ज करने में कामयाब रहेगी या फिर सपा-बसपा गठबंधन उनका खेल बिगाड़ने में सफल साबित होगा। इस बार असल चुनावी जंग किला बचाने और ढहाने का है। ऐसे में रुहेलखंड की पांच लोकसभा सीटों का क्या है चुनावी इतिहास और यहां के मुख्य स्थानीय मुद्दे क्या-क्या हैं... ये इस रिपोर्ट में हम आपको बताते हैं।


बरेली लोकसभा सीट: 7 बार के सांसद Vs कांग्रेस + गठबंधन


बरेली की पहचान....झुमका, सुरमा, मांझा और बांस, जिसके चर्चे दूर-दूर तक रहते हैं। इस लोकसभा सीटे के अंतर्गत नौ विधानसभा क्षेत्र आते हैं और सभी पर बीजेपी का कब्जा है। दो लोकसभा सीटें है, उन दोनों पर भी भगवा लहरा रहा है, यानी बीजेपी के सांसद हैं।


बरेली की अभी तक की स्थिति:




  • बरेली के पहले लोकसभा चुनाव (1951) में कांग्रेस के सतीश चंद्र विजयी हुए थे।

  • इस सीट पर 1971 तक कांग्रेस ही काबिज रही।

  • 1977 में अपातकाल के बाद सियासी हवा बदली, तब कांग्रेस के सतीष चंद्र को भारतीय लोकदल के प्रत्याशी राममूर्ति ने करारी शिकस्त दी। वे करीब एक लाख सात हजार 685 वोटों से हारे।

  • उसके बाद से ये सीट बीजेपी का गढ़ कही जाने लगी।

  • 1989 में बीजेपी के संतोष गंगवार यहां से जीते।

  • संतोष गंगवार बरेली लोकसभा सीट से रिकॉर्ड बनाते हुए छह बार लगातार सांसद रहे। 2009 में यह क्रम टूटा।

  • 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रवीन सिंह ऐरन ने संतोष गंगवार का विजयरथ रोका।

  • 2014 में गंगवार ने फिर खुद को साबित किया और सातवीं बार जीत दर्ज की।

  • इस बार फइर गंगवार चुनावी मैदान में हैं।


एक बार फिर चुनावी बिसात बिछ चुकी है, विपक्षी भी इस बार बदलाव की कोशिश में पूरे जोरों-शोरों से लगा है। सपा-बसपा पुरानी रंजिशों को भुलाकर बीजेपी का विजयरथ रोकने के लिए साथ खड़ीं हैं। उधर, कांग्रेस में प्रियंका गांधी वाड्रा के आ जाने से पार्टी भी अलग जोश से भरी हैं। यह पहला मौका होगा जब सपा-बसपा साथ मिलकर बीजेपी को कड़ी चुनौती देने के लिए साथ खड़ी हैं। वहीं, संतोष गंगवार आठवीं बार जीत का रिकॉर्ड बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, ऐसे में इस सीट का मुकाबला वाकई काफी दिलचस्प होने वाला है।


प्रमुख स्थानीय मुद्दे




  1. जरी, मांझा, बांस, फर्नीचर उद्योग पनपे- इसकी चुनौती।

  2. टेक्सटाइल पार्क, मेगा फूडपार्क पर काम चल रहा है। मगर काम अंजाम तक पहुंचने तक युवाओं को रोजगार मिलने की चुनौती।


पीलीभीत लोकसभा सीट: साख की जंग


बरेली मंडल का पीलीभीत जिला एक ओर से उत्तराखंड तो दूसरी ओर से नेपाल की सीमा से लगता है। जहां के घने जंगल और टाइगर रिजर्व पीलीभीत की पहचान है। बीजेपी का गढ़ माने जाने वाली पीलीभीत लोकसभा सीट पर कभी कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था।


पीलीभीत की अभी तक की स्थिति:




  • पहले आम चुनाव से लेकर 1976 तक इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा रहा।

  • 1977 में जनता पार्टी का उम्मीदवार विजयी हुआ।

  • 1980 में फिर कांग्रेस की वापसी हुई।

  • 1989 आते-आते सियासी हवा बदली और भारतीय राजनीति के परिदृश्य में नया नाम उभरा...मेनका संजय गांधी का।

  • अपने पहले ही चुनाव में मेनका गांधी ने कांग्रेस को करारी हार दी।

  • हालांकि 1991 के मध्यावधि चुनाव में मेनका गांधी को झटका लगा।

  • 1996 से अबतक यह सीट मेनका के परिवार में ही रही।

  • 2004 तक मेनका खुद पीलीभीत से लड़ीं।

  • 2009 में बेटे वरुण गांधी को लड़वाया भी और वे जीते भी।

  • 2014 में मेनका वापस लौंटी और बीजेपी के प्रत्याशी के तौर पर भारी मतों से जीतीं।

  • इस बार ऐसी खबरें है कि मेनका पीलीभीत की बजाय सुल्तानपुर से चुनावी मैदान में उतरीं हैं।

  • मेनका की पीलीभीत सीट से बेटे वरुण गांधी को चुनावी मैदान में उतारा गया है। वरुण गांधी फिलहाल यूपी के सुल्तानपुर से सांसद हैं और 2009 में वो पीलीभीत से ही पहली बार सांसद बने थे।


प्रमुख मुद्दे




  • मानव-बाघ संघर्ष, जिसमें दो दर्जन से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है।

  • पूरनपुर क्षेत्र के ट्रांस शारदा क्षेत्र में हर साल बाढ़ बड़ा मुद्दा भी प्रमुख है।


शाहजहांपुर: बदलाव की करवट, टिकने की परीक्षा


राजनीतिक दृष्टिकोण से शाहजहांपुर लोकसभा सीट का काफी महत्व है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संग के चौथे सरसंचालक राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया इसी जिले से थे। इस सीट पर भी अधिकतर समय कांग्रेस का ही दबदबा रहा है। इस कांग्रेस के दिग्गज नेता जितेंद्र प्रसाद का गढ़ कहा जाता है। हालांकि वर्तमान में यहां भाजपा का परचम लहरा रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर बीजेपी की निगाहें इस सीट पर हैं।


शाहजहांपुर की अभी तक की स्थिति:




  • 1962 के लोकसभा चुनाव के दौरान यह सीट वर्चस्व में आई।

  • शुरुआती तीन चुनाव में इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा रहा।

  • इस सीट से नौ बार कांग्रेस के सांसद चुने गए, दो बार सपा और भाजपा ने जीत का सेहरा पहना।

  • 1977 में चली सरकार विरोधी आंधी में कांग्रेस यहां टिक नहीं सकी। जनता दल के सुरेंद्र विक्रम ने कांग्रेस का विजय रथ रोका था।

  • तीन साल बाद जब देश में फिर चुनाव हुए तो कांग्रेस की दोबारा वापसी हुई। 1980 और 1984 में कांग्रेस के जितेंद्र प्रसाद फिर बड़े अंतर से जीते।

  • 1989, 1991 में इस सीट पर भाजपा ने जीत हासिल की।

  • 1996 में समाजवादी पार्टी के राममर्ति सिंह वर्मा ने कांग्रेस को हराकर सीट पर कब्जा किया।

  • 1998 में सत्यपाल सिंह ने पहली बार भाजपा को जीत का स्वाद चखाया।

  • 1999 में जितेंद्र प्रसाद फिर जीते।

  • 2001 में उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस सहानुभूमि का फायदा उठा न सकी और सीट सपा से राममूर्ति सिंह ने जीती।

  • 2004 में जितेंद्र प्रसाद के बेटे जितिन प्रसाद विजयी हुए।

  • 2009 में सीट सपा के खाते में चली गई और मिथिलेश कुमार विजयी रहे।

  • 2014 में बीजेपी की कृष्णाराज पार्टी यहां से संसद पहुंची।

  • इस बार कृष्णाराज का टिकट काटकर बीजेपी ने अरुण सागर को चुनाव में उतारा है।


प्रमुख स्थानीय मुद्दे




  • शहर में जाम का स्थानीय मुद्दा हमेशा चर्चा में रहा। शहर में सड़कों का चौड़ीकरण न होना और घने क्षेत्र के विकल्प न होने से लगने वाली जाम बड़ी समस्या है।

  • बरेली से लखनऊ तक निर्माणधीन नेशनल हाईवे सात साल से अधूरा पड़ा है। आए दिन लंबा जाम व हादसे होते हैं।

  • शहर में जलभराव भी बड़ी स्थानीय समस्या है। सीवर लाइन नहीं होने से बारिश में मुसीबत बढ़ जाती है।

  • रोजगार भी क्षेत्र का प्रमुख स्थानीय मुद्दा है। जिले में सरकारी व निजी प्रतिष्ठान होने के बावजूद स्थानीय सुवाओं के लिए पर्याप्त रोजगार नहीं है। जिस कारण या तो युवा पालयन कर रहे हैं या फिर खेती पर निर्भर हैं।


आंवला लोकसभा सीट: लगातार दो बार से चढ़ा भगवा


आंवला लोकसभा सीट पर लगातार दो बार से चढ़ रहा भगवा रंग का जादू इस बार किसना चढ़ेगा, ये तो चुनावी परिणाम बताएगा। लेकिन यह भी सच रहा है कि यहां के मतदाता चेहरों को परखते रहे हैं।


आंवला की अभी तक की स्थिति:




  • आंवला में पहली बार 1962 में लोकसभा चुनाव हुए और हिंदू महासभा दल के ब्रिज लाल सिंह यहां के पहले सांसद बने।

  • 1967 और 1971 के चुनाव में कांग्रेस का परचम लहराया।

  • 1977 के चुनाव में वोटरों का मिजाज फिर बदला और कांग्रेस को सत्ता से बदखल कर भारतीय जनसंघ के बृजराज सिंह को संसद पहुंचाया।

  • फिर अगले दो चुनाव यानी 1980, 1984 में कांग्रेस के जयपाल सिंह कश्यप और कल्याण सिंह सोलंकी ने जीत दर्ज की।

  • 1989 और 1991 के चुनाव में भाजपा के राजवीर सिंह जीते।

  • 1996 के चुनाव में भाजपा को झटका लगा और सपा के कुंवर सर्वराज सिंह ने सीट पर कब्जा किया।

  • अगले चुनाव में भाजपा के राजवीर सिंह दोबारा जनमत हासिल करने में कामयाब रहे।

  • उठापटक का सिलसिला अगले चुनाव में भी जारी रहा और सपा से सर्वराज सिंह फिर जीते।

  • 2004 में सर्वराज सिंह ने पार्टी बदली और जनता दल यूनाइटेड के टिकट से मैदान में उतरे और जीते।

  • 2009 में बीजेपी से मेनका गांधी को मैदान में उतारा और 2014 में धर्मेंद्र कश्यप पर दांव चला। दोनों ने जीत हासिल की

  • इस बार फिर बीजेपी ने धर्मेंद्र कश्यप को पार्टी प्रत्याशी बनाया है।


बदायूं लोकसभा सीट: फिर दौड़ेगी साइकिल या बदलेगा चेहरा


बदायूं लोकसभा सीट, एक ही सवाल है क्या फिर दौड़ेगी साइकिल या बदलेगा चेहरा? ये सवाल इसलिए क्योंकि बदायूं को समाजवादी पार्टी का गढ़ कहते हैं, जहां पिछले चुनाव में मोदी मैजिक भी कोई कमाल नहीं दिखा सका था। जहां बीजेपी के विजय रथ ने प्रदेश में विपक्ष का नामो-निशान मिटा दिया था, वहां साइकिल इस सीट पर सरपट दौड़ती आगे निकल गई थी। यह सीट सपा के लिए कितना महत्व रखती है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह के अस्तित्व में आने के बाद यह सीट सपा के लिए हमेशा संजीवनी बनी है।


बदायूं की अभी तक की स्थिति:




  • 1998 में यह सीट सपा के कब्जे में ही रही।

  • सलीम इकबाल शेरवानी लगातार चार बार चुनाव जीते।

  • 2009 में मुलायम सिंह ने भतीजे धर्मेंद्र यादव को उतारा, तो उन्हें भी यादव-मुस्लिम गणजोड़ ने संसद पहुंचाया।

  • 2014 के मोदी मैजिक में भी सपा यह सीट बचाने में सफल रही थी।

  • सपा-बसपा गठबंधन ने इस बार फिर धर्मेंद्र यादव को बदायूं से अपना प्रत्याशी बनाया है।


प्रमुख स्नानीय मुद्दे




  • गन्ना किसानों का करोड़ों का बकाया

  • चीनी मिलों पर कोई नकेल न होने की समस्या

  • ब्रॉडगेज से बड़े शहरों के लिए मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों की मांग

  • सिंचाई और बाढ़ की दोहरी समस्या, बदायूं सिंचाई परियोजना अभी अधूरी

  • राजकीय मेडिकल कॉलेज में ओपीडी शुरू हुई, लेकिन पढ़ाई और मरीजों से जुड़ी अन्य सुविधाएं नहीं है।