लखनऊ, एबीपी गंगा। उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनावों में ऐसा कई बार हुआ है जब किसी उम्मीदवार की जीत की चर्चाओं से ज्यादा नेता की हार ने लोगों को चौंकाया है। प्रदेश की सियासत के ये वो पल रहे जब नेताओं की हार सुर्खियां बनीं। सियासी दिग्गजों की ये हार इतिहास के पन्नों में दर्ज है। उत्तर प्रदेश की सियासत के रोमांचक मुकाबलों का कोई भी जिक्र देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हार की चर्चा के बिना अधूरा है।


जब अपने ही गढ़ में हारीं इंदिरा



1977 के लोकसभा चुनाव को भला कोई कैसे भुला सकता है, जब अपने ही गढ़ में इंदिरा गांधी को हार का सामना करना पड़ा था। इंदिरा गांधी की हार उस वक्त राजनारायण की जीत से ज्यादा सुर्खियों में रही। आपातकाल की पृष्ठभूमि में गांधी-नेहरू परिवार की विरासत सीट रायबरेली में हुए चुनावी दंगल में जनता पार्टी के राजनारायण ने तत्कालीन इंदिरा गांधी को करारी मात दी थी।


राजनीति के आजातशत्रु भी हारे 



देश के पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी को भले ही राजनीति का अजातशत्रु कहा जाता था, लेकिन उन्हें भी अपने संसदीय क्षेत्र में पराजय का सामना करना पड़ा था। राजनीति के शुरुआत के दिनों में वाजपेयी दो बार अपनी कर्मभूमि लखनऊ से हारे औक एक बार बलरामपुर से भी हार झेलनी पड़ी। अपने 5 दशकों के संसदीय जीवन में 5 सीटों पर अटल को हार का सामना करना पड़ा।


1952 में अटल पहली बार लखनऊ लोकसभा सीट से लड़े, लेकिन सफलता नहीं मिली। 1957 में जनसंघ ने वाजपेयी को तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनावी मैदान में उतारा। वे लखनऊ में चुनाव हारे, मथुरा में उनकी ज़मानत जब्त हो गई। हालांकि, बलरामपुर संसदीय सीट से चुनाव जीतकर वे लोकसभा पहुंचे। 1962 में लखनऊ सीट से फिर हारे।


चंद्रशेखर के पांव भी सियासत की रपटीली राहों पर फिसले


राजनीति के रपटीली राहों पर कई दिग्गजों के पैर फिसले हैं, इनमें से एक पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी रहे हैं। चंद्रशेखर ने लोकसभा में आठ बार बलिया का प्रतिनिधित्व किया, इसके बावजूद उनकी जीत का सिलसिला 1984 में रुका। अपनी बेबाकी और तीखे तेवर के लिए महशूर चंद्रशेखर को बलिया में अजेय समझा जाने लगा, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जनता के बीच कांग्रेस के पक्ष में उपजी सहानुभूति की आंधी ने चंद्रशेखर के किले को ढहा दिया।  कांग्रेस के जगन्नाथ चौधरी ने उन्हें उनके ही गढ़ में हराया।


विश्वनाथ प्रताप सिंह भी चुनावी दंगल में हुए चित


पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भी लोकसभा चुनाव के दंगल में पटखनी खा चुके हैं। 1977 में वे इलाहाबाद संसदीय सीट से चुनाव हारे। तब बीएलडी के जनेश्वर मिश्रा ने वीपी सिंह (कांग्रेस प्रत्याशी) को करीब 90 हजार वोटों से हराया था।


जब चौधरी चरण सिंह को भी हार ने सुर्खियां बटोरीं


किसान नेता कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का नाम भी इस फेहरिस्त में शामिल है। मुजफ्फरनगर संसदीय सीट जाट राजनीति का गढ़ कही जाती है। 1971 में लोकसभा चुनाव में चौधरी चरण सिंह मुजफ्फरनगर से हार गए थे। केंद्र की राजनीति की ओर कदम बढ़ाते हुए ये उनका पहला लोकसभा चुनाव था। कांग्रेस ने उनके खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारकर, सीपीआई उम्मीदवार विजयपाल सिंह को समर्थन दिया। जिन्होंने 50 हजार वोटों से चरण सिंह को हराया.


बागपत से लगातार जीतने वाले अजित सिंह भी हारे



चौधरी चरण सिंह के बेटे पूर्व केंद्रीय मंत्री अजित सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बागपत संसदीय सीट से 1989 से 1996 तक लगातार तीन बार चुनवा जीते। 1998 में भाजपा के सोमपाल शास्त्री ने जब अजित सिंह को उनके गढ़ में हराया, तो राजनीतिक हलकों से लेकर अखबारों व टीवी चैनलों पर ये चर्चा काफी दिनों तक होती रही। 2014 के चुनाव में दूसरी बार अजीत सिंह अपने गढ़ में हारे और भाजपा के उम्मीदवार पूर्व मुंबई पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने उन्हें चुनावी अखाड़े में पटखनी दी।


वो हार, जिसने एनडी तिवारी के सियासी करियर पर डाला गहरा असर


यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के गठन से पहले 1991 और 1998 में नैनीताल संसदीय सीट से पराजित हुए। इस हार ने उनके सियासी करियर पर भी गहरा असर डाला।


यूपी की पहली महिला मुख्यमंत्री की हार भी बनी हेडलाइन


प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुजेता कृलानी ने 1971 का चुनवा फैजाबाद सीट से कांग्रेस (ओ) की टिकट पर लड़ा। इस चुनाव में उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार रामकृष्ण से हार का सामना करना पड़ा।


अपने जीवन का इकलौता चुनाव हारे थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय


दिग्गजों की हार में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हार भी शामिल है। भाजपा जिस पंडित दीनदयाल उपाध्याय को अपना राजनीतिक पितामह मानती है, उन्हें भी 1963 में जौनपुर संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में हार झेलनी पड़ी थी।


दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवन में सिर्फ एक चुनाव लड़े और उसमें हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव में दीनदयाल  हराने के लिए कांग्रेस ने राजदेव सिंह पर मैदान में उतारा। स्थानीय लोगों में भाई साहब के नाम से मशहूर राजदेव को इंदिरा गांधी का करीबी कहा जाता था। स्थानीय लोगों से भी उनका खासा जुड़ाव था। चुनावी बिगुल बजा, तो धरातल पर भी उनके इस जुड़ाव का असर दिखा। नतीजतन वे चुनाव जीत गए। ऐसा कहा जाता है कि दीनदयाल उपाध्याय ने चुनावों के नतीजों से पहली ही अपनी हार स्वीकार कर ली थी और नतीजे भी वैसे ही रहे थे।


जब फिल्मी ग्लैमर से पार न हो सका बहुगुणा का राजनीतिकि रसूख


1984 में अमिताभ ने इलाहाबाद सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था। ये वो दौर था जब उनका फिल्मी करियर बुलंदी पर था। हालांकि राजनीति के वे कच्चे खिलाड़ी थे। 1984 में अमिताभ बच्चन के फिल्मी ग्लैमर के सामने पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा का राजनीतिक रसूख टिक नहीं सका था और वो हार गए। बहुगुणा को बिग बी ने लगभग दो लाख वोटों से हराया था। बहुगुणा की हार और बच्चन की जीत...दोनों ने खूब सुर्खियां बटोरीं।


2004 में जोशी का जोश भी नहीं जीता सका चुनाव


2004 लोकसभा चुनाव में भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी इलाहाबाद संसदीय सीट से चुनावी दंगल में लड़ने कूदे थे। लेकिन सपा के रेवती रमण सिंह से पराजित हो गए। उनकी इस हार ने भी कइयों को चौंकाया।


दो बार बदायूं सीट से हारे शरद यादव


लोकतांत्रिक जनता दल बनाने वाले दिग्गज नेता शरद यादव भी 1984 और 1991 में यूपी की बदायूं लोकसभा सीट से दमखम दिखा चुके हैं। हालांकि, उनके राजनीतिक रसूख का जादू न चल सका और दोनों बार वे हारे।


जब गांधी-नेहरू परिवार की छोटी बहू जेठ से हारीं



गांधी-नेहरू परिवार की छोटी बहू और सात बार लोकसभा सदस्य रह चुकीं मेनका गांधी भी अपने परिवार की विरासत सीट पर हार का सामना कर चुकी हैं। 1984 के चुनाव में अमेठी से मेनका गांधी अपने ही जेठ और कांग्रेस के प्रत्याशी राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरी थीं।


बरेली से रिकॉर्ड जीत दर्ज करने वाले गंगवार भी हुए पराजित


बरेली लोकसभा सीट से जीत दर्ज कर लगातार छह बार संसद का रुख करने वाले बीजेपी नेता संतोष गंगवार की हार भी अखबारों, न्यूज चैनलों में बहस का विषय रही। गंगवार ने बरेली सीट पर 1989 से 2004 तक लगातार जीत दर्ज की, लेकिन 2009 में कांग्रेस के प्रवीण ऐरन से उन्हें मात खानी पड़ी। राजनीतिक समीक्षकों को गंगवार की हार पर यकीन करना मुश्किल हुआ।


जब डबल हैट्रिक लगाने से चूके थे बेनी प्रसाद वर्मा


पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे बेनी प्रसाद वर्मा 11वीं से 15वीं लोकसभा तक के सदस्य रहे। सपा की टिकट पर वर्मा ने चार बार कैसरगंज से जीत दर्ज की और कांग्रेस की टिकट पर वे गोंडा सीट से जीते। हालांकि लोकसभा सदस्य के तौर पर उनका डबल हैट्रिक लगाने का सपना 2014 में आई मोदी लहर में टूट गया।


जब काशीराम को उन्हीं के चेले ने हराया


बसपा सुप्रीमो मायावती के राजनीतिक गुरु और पार्टी के संस्थापक काशीराम 1996 में फूलपुर सीट पर हुए चुनाव में हार गए थे। इस चुनाव की दिलचस्प बात ये रही कि वे अपने ही पुराने चेले और तब के सपा प्रत्याशी जंग बहादुर सिंह पटेल से हारे थे। इस हार ने खूब सुर्खियां बटोरीं। हालांकि 1991 की रामलहर में भी वे इटावा से चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे, ऐसे में 1996 की उनकी  हार ने सभी को चौंका दिया था। 1998 के चुनाव में भी काशीराम सहारनपुर से हारे गए थे।


मायावती भी हारीं



1989 में बिजनौर सीट पर जीत का परचम लहराने वाली मायावती खुद इसी सीट पर 1991 में हार गई थीं।