नोएडा, एबीपी गंगा। कहते है कि राजनीति भी क्रिकेट की तरह अनिश्चितताओं का गेम है। यहां कब कौन सा नेता किस पार्टी का दामन थाम ले कहा नहीं जा सकता है। नफा-नुकसान देखकर माननीय अपना पाला बदल लेते हैं, लेकिन ये फैसला उनकी सफलता की गारंटी हो, ये जरूरी नहीं। पश्चिम यूपी में आने वाली मैनपुरी लोकसभा सीट का इतिहास देखे तो ये बात सही साबित होती है।


मैनपुरी में अपने दलों को दगा देने वाले नेताओं ने कभी जीत का स्वाद नहीं चखा है। यहां लोगों ने उन्हीं नेताओं को संसद भेजा, जिन्होंने अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाई। जीतने वाले सांसद दल बदलते ही चुनाव हार गए। इनमें से कई तो अपनी जमानत तक गंवा बैठे।


देश में 1952 में हुए पहले आम चुनाव में बादशाह गुप्ता ने कांग्रेस की टिकट पर यहां से जीत दर्ज की थी। हालांकि अगले चुनाव में वो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बंसीदास से हार गए। 1962 में बादशाह गुप्ता कांग्रेस के झंडे पर चुनाव लड़कर फिर संसद पहुंचे। 1967 में कांग्रेस ने बादशाह का टिकट काटकर महाराज सिंह को मैदान में उतारा। महाराज बड़े अंतर से चुनाव जीतने में कामयाब रहे। 1971 में कांग्रेस ने फिर महाराज सिंह पर दांव खेला, जिससे नाराज होकर बादशाह गुप्ता इंडियन नेशनल कांग्रेस ऑर्गनाइजेशन (एनसीओ) की तरफ से मैदान में उतरे। हालांकि बादशाह इस बार चुनाव हार गए।


आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में महाराज सिंह चुनाव हार गए। इस बार भारतीय लोकदल के रघुनाथ सिंह र्मा ने बाजी मारी। 1980 में महाराज सिंह कांग्रेस (इंदिरा) की टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन वो तीसरे स्थान पर रहे। 1984 के चुनाव में दल बदलने वाले रघुनाथ सिंह वर्मा चुनाव हार गए और तीसरे स्थान पर रहे।