Mahoba News: बुंदेलखंड में लठमार दिवाली की परंपरा द्वापर युग से आज भी चली आ रही है. प्रकाश के पर्व पर महोबा युद्ध का मैदान बन गया और जगह-जगह लोग लाठी डंडे लेकर लठमार दिवाली खेलने सड़कों पर उतर आए है. यही नहीं इस दिवाली लोकनृत्य में आपसी एकता और हिंदू मुस्लिम भाईचारे की झलक भी देखने को मिलती है.


ढोलक की थाप पर लाठियों के अचूक वार करते युवाओं की टोलियां युद्ध कला का अनोखा प्रदर्शन कर लोगों को अचंभित कर देती है. जिसमें न केवल युवा और बुजुर्ग अनूठी परंपरा में युद्ध कौशल का परिचय कराते है बल्कि बच्चे भी दिवाली से आत्मरक्षा के गुण सीख रहे है.


विशेष महत्व रखती है ये परंपरा
बुंदेलखंड में वीरता और बहादुरी दर्शाते दीपावली में ये अनूठी परंपरा विशेष महत्व रखती है. लाल, हरे,नीले, पीले वेशभूषा में मजबूत लाठी जब दिवाली लोक नृत्य खेलने वालों के हाथ आती है तब यह बुंदेली सभ्यता परंपरा को और भी मजबूती से पेश करती है.


 



बच्चे अपनी कला का करते हैं प्रदर्शन


दीपावली पर्व के एक सप्ताह पूर्व और बाद तक गांव-गांव, कस्बे-कस्बे के धार्मिक स्थानों पर पूजा उपरांत हाथों में लाठियां लेकर घूमती टोलियां एक दूसरे से ढोलक की थाप पर लड़ते नजर आते हैं. दिवाली नृत्य से आत्मरक्षा और युद्ध कलाओं को बच्चे और युवा सीख रहे है. दिवाली नृत्य की टोली का मुखिया दिवाली गाकर अन्य सदस्यों में जोश भरने का काम करता है.


हाथ में लठ थाम करते हैं एक-दूसरे पर प्रहार
दिवाली गाकर देखते ही देखते सभी युवा हाथों में लिए लाठी डंडों से एक दूसरे पर ताबड़तोड़ प्रहार शुरू कर देते हैं. मानो ऐसा लगता है कि यहां दीपावली पर्व मनाने नहीं बल्कि कोई युद्ध का मैदान जीतने के लिए लोग इकट्ठा हुए है. बुंदेलखंड के महोबा, हमीरपुर, बांदा,चित्रकूट, झांसी ललितपुर और जालौन जनपदों में लठमार दिवाली के दृश्य अमूमन दीपावली पर्व पर देखे जा सकते हैं. बरसाने की लठमार होली की तरह ही बुंदेलखंड की लठमार दिवाली अपनी क्षेत्रीय भाषा और वेशभूषा, परंपरा को समेटे सदियों पुरानी संस्कृति है.


 



दिवाली पर गाया जाता है गीत


जानकार बताते हैं कि द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने जब इंद्र के प्रकोप से बृजवासियों को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया था. तभी इंद्र पर विजय के रूप में जश्न मनाते हुए बृजवासियों ने दिवाली नृत्य किया था. इस नृत्य को दुश्मन को परास्त करने की सबसे अच्छी कला भी माना जाता है. जिसे बुंदेलखंड में बखूबी आज भी बच्चे, बूढ़े और जवान टोली बनाकर निभाते चले आ रहे हैं. धनतेरस से लेकर दीपावली की दूज तक गांव-गांव में दिवाली खेलते नौजवानों की टोलियां घूमती रहती है. हजारों की भीड़ इन टोलियों के युद्ध कौशल को देखने पहुंचती है. 


परंपरा में दिखती है हिंदू-मुस्लिम एकता की झलक
माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने भी ग्वालो को आत्मरक्षा के लिए यह कला सिखाई थी. अकरम खान बताते हैं कि वह बचपन से ही अपने उस्ताद लखनलाल यादव दिवाली सीख टोली में शामिल हुए थे. बरसों पुरानी परंपरा को हिंदू मुस्लिम भाईचारा के रूप में निभाते चले आ रहे हैं. वह खुद न केवल दिवाली गाते हैं बल्कि हाथों में लाठी लेकर वृंदावन के ग्वाले बन जाते हैं. यही नहीं उनका पुत्र अफसार भी इसी परंपरा को आगे निभा रहा है जो आठ वर्ष की उम्र से ही दीपावली पर्व में दिवाली खेल रहा है.


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