लखनऊ, एबीपी गंगा। लोकसभा चुनाव 2019 कई मायनों में अहम है। उत्तर प्रदेश के चुनावी समीकरण पर हर सियासी दल की नजर है। कुछ तो ऐसे हैं जो चुनाव के बाद खुद को किंग मेकर की भूमिका में देख रहे हैं तो कुछ अपना अस्तित्व बचाने के लिए हर तरह से गठबंधन का हिस्सा हैं। सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन यूपी में बड़े दलों के लिए मुसीबत बन सकता है। गठबंधन के बीच यूपी में वोटरों का मिजाज समझ पाना किसी भी सियासी दल के लिए आसान नहीं है। मुस्लिम वोटों को लेकर सियासी गुणा-भाग जारी है और अब देखना ये है कि आखिर मुस्लिम वोटरों का झुकाव किस तरफ होगा।


दिलचस्प है प्रियंगा गांधी की एंट्री


मुस्लिम वोटरों का रुख सूबे में बड़ा उलटफेर कर सकता है। मुस्लिम वोटों की लामबंदी के लिए सियासी पार्टियों की अपनी रणनीति है लेकिन ये देखना दिलचस्प होगा कि प्रियंगा गांधी की सियासत में एंट्री के बाद वोट समीकरण में किस तरह के बदलाव हो सकते हैं, जिसका आकलन नतीजे आने के बाद ही किया जा सकता है।


कई सवालों के मिलेंगे जवाब


मुस्लिम वोटरों का मिजाज समझने और मौजूदा राजनिति को लेकर बन रही स्थिति पर नजर डालना आवश्यक है। कहीं, यूपी में भ्रम की स्थिति तो नहीं बन रही है? किसे मिलेगा मुस्लिम वोटरों का साथ? गठबंधन क्या एक मजबूत विकल्प है? ये वो सवाल हैं जिनका जवाब जानना बेहद जरूरी है। तो चलिए जानते हैं कि आखिर सतह पर शह और मात का खेल किस तरह से जारी है।


सप-बसपा गठजोड़ का प्रभाव


दरअसल, अब तक ठोस विकल्प न मिल पाने से मुसलमानों में भ्रम जैसी स्थिति बनी है। एक ओर सपा-बसपा का गठबंधन है तो दूसरी ओर कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय वजूद रखने वाली पार्टी। पुराने गिले-शिकवे भुला कर अखिलेश और मायावती ने चुनावी गठजोड़ जरूर किया है, लेकिन क्या मुस्लिम वोटरों पर इसका प्रभाव पड़ेगा? आंकड़ों की बात करें वर्ष 2014 में प्रदेश से एक भी मुस्लिम सांसद जीतकर संसद तक नहीं पहुंच सका था।



2014 का समीकरण


उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों का आबादी 3.84 करोड़ से अधिक है। यानि कुल आबादी का 19 फीसद से अधिक। आजादी के बाद गत लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ था कि प्रदेश से कोई मुस्लिम सांसद निर्वाचित होकर लोकसभा नहीं पहुंच सका। 2014 के चुनावी रण में प्रमुख गैर भाजपाई पार्टियों ने अच्छी खासी संख्या में मुस्लिमों को मैदान में उतारा था। बसपा ने दलित-मुसलमान समीकरण के आधार पर 19, सपा ने 13 व कांग्रेस ने 11 मुस्लिम प्रत्याशी उम्मीदवार उतारे लेकिन सभी धराशायी हो गए थे।


धुव्रीकरण की राजनीति


2014 का लोकसभा चुनाव मुस्लिम सियासत के हिसाब से बड़ा झटका था। धुव्रीकरण की राजनीति ने विधानसभा चुनाव में भी अपना रंग दिखाया। मुसलमानों की रहनुमाई का दावा करने वाले दोनों दल सपा-बसपा हाशिये पर पहुंच गए। बसपा ने मुस्लिम-दलित धुव्रीकरण पुख्ता करने के लिए सौ से अधिक मुसलमानों को टिकट दिए, उधर सपा ने कांग्रेस से गठबंधन कर मुस्लिमों को रिझाने की कोशिश की परंतु कामयाबी नहीं मिली।


सियासी गतिविधि पर है बारीक नजर


मुस्लिम राजनीति पर बारीकी से नजर रखने वाले सियासी जानकारों का मानना है कि आम मुसलमान भी इस बात से वाकिफ है कि केंद्र की सरकार को छोटे दलों के भरोसे नहीं बदला जा सकता है। सत्ता के लिए पाला बदलने में माहिर क्षेत्रीय क्षत्रपों का इतिहास सभी जानते हैं। लिहाजा गठबंधन पर भरोसा कर लिया जाए ये थोड़ा मुश्किल ही नजर आता है।


कंग्रेस का रोल भी है अहम


इसमें कोई संदेह नहीं है कि सपा-बसपा का गठबंधन प्रदेश में बड़े विकल्प के रूप में उभरा है, लेकिन इसका असर हिंदू वोटों के धुव्रीकरण के रूप में भी सामने आ सकता है। सूबे की डेढ़ दर्जन से ज्यादा मुस्लिम बहुल सीटों पर सबकी नजर है जिसमें रामपुर जैसे जिले भी शामिल हैं, जहां 50.57 प्रतिशत आबादी मुसलमान है। प्रदेश में 20 फीसद से अधिक मुस्लिम आबादी वाले जिलों की संख्या 21 है। इन जिलों पर गठबंधन और कांगेस की नजर भी लगी है।


बढ़ी है गठबंधन की बेचैनी


सपा-बसपा गठबंधन के बाद कांग्रेस मुख्य मुकाबले से बाहर दिख रही थी परंतु प्रियंका गांधी की एंट्री ने समीकरण बदल दिए हैं। पिछड़े वर्ग को साथ में जोड़कर मुस्लिमों को रिझाने की कोशिश में जुटी कांग्रेस कितना सफल होगी यह तो वक्त ही बताएगा परंतु इस दांव से गठबंधन की बेचैनी बढ़ी है। यूं भी मुसलमान कांग्रेस का ही परंपरागत वोटर रहा है। अन्य पिछड़ी बिरादरियों का प्रतिनिधित्व करने वाले छोटे दलों से गठबंधन का कांग्रेस का प्रयोग कारगर रहा तो मुस्लिमों के लिए पंजे का बटन दबाने का विकल्प भी खुला होगा।


...तो क्या महज वोटबैंक हैं मुसलमान


भाजपा को हराने-जिताने की सियासत ने मूल मसलों से मुस्लिमों को भटका दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और सुरक्षा जैसे मुद्दे चुनावी राजनीति से दूर होते जा रहे हैं। कई जानकारों का तो यहां तक कहना है कि मुसलमानों को वोटबैंक की तरह प्रयोग करने वालों ने उन्हें काफी पीछे कर दिया है। मुस्लिमों के लिए विकल्प के तौर पर गठबंधन व कांग्रेस के अलावा स्थानीय दलों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अलावा ओवैसी की एमआईएम व डा.अय्यूब की पीस पार्टी, आम आदमी पार्टी जैसे आधा दर्जन से अधिक छोटे दल भी गठबंधन करके बड़ों का खेल बिगाड़ सकते हैं।



मुस्लिम बहुल संसदीय सीटें


गाजियाबाद, बदायूं, बहराइच, आजमगढ़, कानपुर, बुलंदशहर, मुरादाबाद, रामपुर, बिजनौर, कैराना, अमरोहा, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बरेली, मेरठ, सम्भल, बलरामपुर, मऊ, व बाराबंकी जैसी लोकसभा सीटों पर सबकी नजर है।


मुस्लिम बहुल जिले


रामपुर में 50.57 प्रतिशत, मुरादाबाद में 47.12 प्रतिशत, बिजनौर 43 प्रतिशत, सहारनपुर 42 प्रतिशत, मुजफ्फरनगर 42 प्रतिशत, अमरोहा में 40 प्रतिशत, बलरामपुर में 37 प्रतिशत है। इसी तरह मेरठ, बहराइच, श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, बागपत, गाजियाबाद, पीलीभीत, संत कबीर नगर, बाराबंकी, बुलंदशहर, बदायूं, लखनऊ व खीरी में मुस्लिम आबादी 20 प्रतिशत से अधिक है। सबसे कम मुस्लिम आबादी ललितपुर में है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां मुस्लिम आबादी अधिक है, वहीं बुंदेलखंड में अपेक्षाकृत कम है।


एक नजर मुस्लिम सांसदों की संख्या पर...


वर्ष        संख्या


1952      36


1957      24


1962      32


1967      29


1971      27


1977      32


1980      46


1985      41


1989      33


1991     28


1996     26


1998     29


1999     31


2004     37


2009    28


2014    22