देहरादून, एबीपी गंगा। मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपने में जान होती है पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है। यह कहावत काशीपुर के एक गरीब परिवार में जन्मी व आठ बार उत्तराखंड चैम्पियन रही अनीता पर बिलकुल सटीक बैठती है। लेकिन अपनी शानदार कामयाबी और राज्य व रष्ट्रीय प्रतियोगिता में कई पदक जीतने के बावजूद यह महिला खिलाडी आज सरकारी उपेक्षा का शिकार है।
वह उत्तराखंड व देश के लिए दौड़ना चाहती है। उसने अपने राज्य उत्तराखंड को 400,800 और 1500 मीटर दौड़ में दर्जनों मेडल दिलाये हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत उसकी उपलब्धियों को देखते हुए पुलिस कांस्टेबिल के लिए अनुंशसा भी कर चुके हैं। वह एम ए , बीपीएड हैं। बाबजूद इसके उसे आज तक नौकरी नहीं मिल सकी है। वह माता पिता पर बोझ नहीं बनना चाहती। यह दर्द भरी दास्ताँ काशीपुर की उस प्रतिभाशाली एथलीट अनीता कुमारी की है जिसने अपने शानदार कौशल से जूनियर और सीनियर स्तर पर अब तक राज्य को दर्जनों पदक दिलाये हैं। उत्तराखंड के काशीपुर में मानपुर रोड पर रहने वाले बलबीर सिंह पेशे से कुम्हार हैं। उनके चार बच्चों में सबसे छोटी बेटी अनीता कुमारी को बचपन से ही खेल व मैदानों से मोहब्बत थी। इस प्रतिभा को कोच चंदन सिंह नेगी ने पहचाना और उसे प्रशिक्षण दिया। अनीता ने अपने प्रशिक्षक की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए पहले जूनियर स्तर पर राज्य भर में पदकों के ढेर लगाए फिर नेशनल स्तर की प्रतियोगिताओं में भी वह जहां गई, गले में पदक लटका कर लौटी।
अब तक राज्य व नेशनल स्तर पर सैकड़ों पदक जीत चुकी अनीता का हौसला पारिवारिक तंगहाली के चलते जबाब देने लगा है। पिता बलबीर सिंह की कमाई से परिवार चलाना ही मुश्किल है ऐसे में अपनी एथलीट बेटी के उचित खान पान की व्यवस्था कैसे कर सकते हैं। अनीता ने नौकरी के लिए खूब प्रयास किये लेकिन हर जगह असफलता ही मिली। 2016 में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अनीता की खेलों में उपलब्धियों को देखते हुए उसे उत्तराखंड उदय सम्मान से भी नवाजा साथ ही पुलिस महानिदेशक को कांस्टेबिल पद के लिए अनुशंसा भी की लेकिन अनीता को नौकरी नहीं मिली। वह लगातार अपनी नौकरी के लिए विधायक हरभजन सिंह चीमा से लेकर खेल मंत्री अरविन्द पांडेय तक के चक्कर काट चुकी है। कई बार मुख्यमंत्री को पत्र लिख चुकी हैं परन्तु मिला तो सिर्फ और सिर्फ आश्वासन।
अनीता कहती है कि मैं कब तक अपने पिता पर बोझ बन कर रह सकती हूँ। मैं अब उनके काम में ही उनका साथ देना चाहती हूँ। मै टूट चुकी हूँ। सवाल यह है कि उत्तराखंड की इस बेटी ने मुफलिसी का सामना करते हुए भी मैदानों में अब तक जिस तरह का प्रदर्शन किया है इसे देखते हुए उसे नौकरी मिल जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमारी हुकूमतें बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का लाख बेसुरा राग अलापती हों पर बेटियों को लेकर जमीनी हकीकत में कोई फर्क नहीं दिखता। अनीता जैसी बेटियां बार बार जन्म नहीं लेती, इस बात का भान आखिर हमारे लोकतंत्र को कब होगा। बेटियां बचाने के नाम पर अरबों रूपये निसार करने वाली हमारी सरकारों की नजर आखिर अनीता जैसी प्रतिभाशाली बेटियों पर कब पड़ेगी।