प्रयागराज (मोहम्मद मोइन). कानपुर में विकास दुबे जैसे अपराधियों के हौसले इसलिए बुलंद थे, क्योंकि वहां का सरकारी अमला उन पर शिकंजा कसने के बजाय उसकी आवभगत में लगा रहता था. आपराधिक मुक़दमे वालों को भी वहां असलहों के लाइसेंस रेवड़ी की तरह बांटे गए थे. न पुलिस की रिपोर्ट, न जांच और न ही दूसरी प्रक्रियाओं का पालन. जिस पर मन आया, उसे लाइसेंस देकर हथियार चलाने की छूट दे दी जाती थी. तमाम अपराधियों के क्रिमिनल रिकार्ड छिपाकर उन्हें लाइसेंस की खैरात दी गई तो साथ ही कई हिस्ट्रीशीटरों को असलहे की दुकान खोलने की भी मंजूरी दी गई थी.


पिछले साल अगस्त महीने में सत्तर से ज़्यादा लोगों को उसी दिन लाइसेंस दे दिया गया, जिस दिन उन्होंने आवेदन किया था. जिसे लाइसेंस देने में कोई तकनीकी पेंच फंसा, उसके नाम फर्जी लाइसेंस जारी कर दिया गया. इन लाइसेंसों के न तो तो कहीं रिकार्ड दर्ज हुए और न ही कहीं कोई कागज़ मिले. पिछले साल हुई एक जांच में फर्जीवाड़े का खुलासा हुआ तो असलहा बाबू और कारीगर ने खुदकुशी का ड्रामा कर डाला.


आर्म्स स्कैंडल की चल रही है जांच


बहरहाल कानपुर के चर्चित आर्म्स लाइसेंस स्कैंडल की जांच अभी पूरी नहीं हो सकी है. सही जांच होने पर कई बड़े अफसरों व दूसरे रसूखदारों के भी फंसने का खतरा है, इसलिए जांच के नाम पर सिर्फ खानापूरी होने की ही उम्मीद है. वैसे इस स्कैंडल की जांच सीबीआई से कराए जाने जाने की मांग को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका भी पेंडिंग है. तकरीबन नौ महीने पहले दाखिल की गई इस जनहित याचिका पर हाईकोर्ट यूपी सरकार से जवाब तलब भी कर चुका है. कई महीने बीतने के बाद भी यूपी सरकार अभी तक अपना जवाब दाखिल नहीं कर सकी है.


याचिका में कहा गया लाइसेंस को लेकर हुआ बड़ा खेल


मेरठ के सामाजिक कार्यकर्ता लोकेश खुराना की तरफ से दाखिल पीआईएल में कहा गया था कि कानपुर में असलहों के लाइसेंस जारी किये जाने के नाम पर पिछले कई सालों में बड़ा खेल हुआ है. अफसरों के इशारे पर बड़ी संख्या में चहेतों को रेवड़ी की तरह लाइसेंस बांटे गए. क्रिमिनल्स और दागियों को भी लाइसेंस बांटने में कोताही नहीं बरती गई. तमाम लोगों का तो पुलिस वेरिफिकेशन तक नहीं कराया गया. न पुलिस की रिपोर्ट लगी और न ही एलआईयू की. तमाम लोगों ने तो जिस दिन आवेदन किया, उनको उसी दिन लाइसेंस दे दिया गया. पिछले साल अगस्त महीने में एक ही दिन में तिहत्तर लोगों को लाइसेंस दिए गए थे. इन तिहत्तर लोगों में इकतीस के खिलाफ क्रिमिनल केस दर्ज थे. नीरज सिंह गौर और विनय सिंह नाम के दो क्रिमिनल्स को तो बाकायदा नियमों को दरकिनार कर असलहा बेचने की दुकान खोलने की मंज़ूरी दे दी गई. जांच में सत्तर से ज़्यादा लोगों के लाइसेंस फर्जी पाए गए. इनका कहीं कोई रिकार्ड ही नहीं था.


डीएम ऑफिस में तैनात क्लर्क था मास्टर माइंड


कानपुर के डीएम आफिस में तैनात आर्म्स क्लर्क विनीत और प्राइवेट असलहा कारीगर जितेंद्र इस स्कैंडल के मास्टर माइंड थे. पिछले साल मामले का खुलासा होने पर इनके पास से लाखों की रकम और तमाम अहम दस्तावेज बरामद हुए थे. इन्होंने नशीली दवाएं खाकर खुदकुशी की कोशिश की थी. कई दिनों तक आईसीयू में एडमिट थे. कुछ छोटे लोग बलि का बकरा बनाए गए थे. उन्हें सस्पेंड किया गया था, लेकिन समझा जा सकता है कि क्रिमिनल्स और दागियों को असलहों के लाइंसेस पंजीरी की तरह बांटे जाने का खेल बड़े पदों पर बैठे ज़िम्मेदार लोगों की सहमति के बिना कतई मुमकिन नहीं है.


स्थानीय प्रशासन से लेकर सरकार तक जब इस मामले में लीपापोती करने लगे तो मेरठ के सामाजिक कार्यकर्ता लोकेश खुराना ने सीबीआई जांच की मांग को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में पीआईएल दाखिल की. याचिकाकर्ता के वकील रंजीत सक्सेना के मुताबिक़ कानपुर में असलहा लाइसेंस में गड़बड़ी का मामला काफी बड़ा है. जांच वही लोग कर रहे हैं, जो खुद आरोपों के घेरे में हैं. स्थानीय प्रशासन की जांच में सिर्फ लीपापोती ही होनी है और उसमे असली खिलाड़ियों को बचाने की पूरी आशंका है, इसलिए सिर्फ सीबीआई जांच से ही ज़िम्मेदार लोगों की भूमिका तय कर उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है.


एडवोकेट रंजीत सक्सेना का कहना है कि उनकी पीआईएल पर हाईकोर्ट यूपी सरकार को नोटिस जारी कर उससे जवाब तलब कर चुकी है, लेकिन कई महीने बीतने के बावजूद सरकार अभी तक अपना जवाब दाखिल नहीं कर सकी है. उनके मुताबिक़ अगर सरकारी अमला पहले ही गंभीर हो जाता और क्रिमिनल्स पर शिकंजा कसकर उनके असलहे जब्त कर लेता तो शायद आठ पुलिसवालों को अपनी जान न गंवानी पड़ती. उनका कहना है कि विकास दुबे और उसके साथियों के क्रिमिनल रिकार्ड चेक कराने और उनको मिले असलहों के लाइसेंस के बारे में जांच कराकर ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ इस पीआईएल में अलग से सप्लीमेंट्री एप्लीकेशन दाखिल कर अर्जेन्ट सुनवाई किये जाने की मांग की जाएगी.


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