लखनऊ, एबीपी गंगा। प्राचीन समय से ही साड़ी भारत का पारंपरिक परिधान रही है। बदलते दौर के साथ फैशन के नए-नए ट्रेंड आते और जाते गए। इसी प्रकार साड़ी पहनने के भी ट्रेंड बदले और लोगों ने इसे खूब पंसद भी किया। आजकल आपने लड़कियों को क्रॉप टॉप, शर्ट, टीशर्ट के साथ भी साड़ी पहने देखा होगा और इनके साथ भी साड़ी खूब जचती है। इसे भारतीय साड़ी के फैशन को सहेजने के लिए डाक विभाग ने डाक टिकटों की एक श्रृंखला जारी की है।


पारंपरिक साड़ी का खत्म होता वजूद होगा कायम!


डाक टिकटों की इस श्रृंखला में आपको भारतीय सिनेमा की पहली अभिनेत्री देविका रानी के साड़ी के पहनावे से लेकर पारसी गारा साड़ी, बंगाली कस्बी साड़ी और ब्रह्मिका साड़ी नजर आएंगी। डाक विभाग ने इन डाक टिकटों की श्रृंखला को जारी करने का कारण भी बताया। विभाग का कहना है कि पश्चिमी पहनावे के दौर में पारंपरिक साड़ी के खत्म होते वजूद को कायम रखने के लिए हमने ये श्रृंखला जारी की है। इस श्रृंखला के साथ ही एक सूचीपत्र भी जारी किया गया है, जिसमें उक्त साड़ी और उनके इतिहास से जुड़ी तामाम जानकारियां लिखी हुई हैं। साड़ी की श्रृंखला वाली इन डाक टिकटों को बिक्री के लिए डाक विभाग के प्रधान कार्यालयों और फ्लेटलिक ब्यूरो में रखा गया है।



चार डाक टिकटों की श्रृंखला, किसपर आधारित



देविका रानी की प्रसिद्ध साड़ी स्टाइल
डाक विभाग द्वारा जारी चार डाक टिकटों की इस श्रृंखला की एक टिकट में भारत की पहली नायिका और 1940 के दशक में खूबसूरती की पर्याय मानी जाने वाली देविका रानी के साड़ी पहनावे को दर्शाया गया है। श्रृंखला के साथ जारी किए गए सूचीपत्र में लिखा है कि देविका रानी के दौर से आजतक सिनेमा और साड़ी का चोली दामन का साथ चलता आ रहा है। उसमें लिखा है कि 1940 के दशक में भी देविका रानी का पहनावा शालीनता के तमाम मानदंड़ों को चुनौती देता था।


पारसी साड़ी
इस श्रृंखला की दूसरी डाक टिकट पर कशीदाकारी से सजाए गए कपड़े से बनने वाली पारसी साड़ी को दर्शाया गया है। सूचीपत्र के मुताबिक, पारसी महिलाएं इन साड़ियों को किसी विशेष अयोजनों पर पहनती थीं। वैसे तो साड़ी का पल्ला बायें कंधे पर होता है, लेकिन पारसी महिलाएं साड़ी के पल्ले को दायें तरफ न लेकर बायें कंधे पर लेती थीं। महिलाओं की गारा साड़ी और पुरुषों का काफ्तान पहनने व सिर पर पगड़ी बांधना...ये पारसी जोड़ों की खास पहचान होती थी।


कस्बी साड़ी 
विलुप्त होती जा रही कस्बी साड़ी को भी इन डाक टिकटों में सहेजा गया है। कहते हैं 13वीं शताब्दी में गुजरात का पठारे प्रभु समुदाय मुंबई जा बसा था और इन्हें मुंबई का पहला निवासी कहा जाता है। कस्बी साड़ी इस समुदाय की महिलाओं की खास पहचान है। अमूमन साड़ी 5-6 गज की होती है, लेकिन कस्बी साड़ी के लिए कहते हैं कि मखमल की ये साड़ी 9 गज की होती थी, जिसके किनारों को सोने और चांदी के बारीक तारों से सजाया जाता था।


ब्रह्मिका साड़ी
20वीं शताब्दी की प्रचालित ब्रह्मिका साड़ी को भी डाक टिकट की इस श्रृंखला में जगह दी गई है। कहते हैं कि समाज सुधार आंदोलन के बाद महिलाओं के पहनावे में भी बदलाव देखने को मिला था। तब बंगाली ब्राह्मण परिवारों की महिलाओं ने ब्रह्मिका साड़ी को अपना परिधान बनाया। इन साड़ियों के बारे में कहा जाता है कि टैगोर परिवार की ज्ञानदानंदिनी देवी ने महिलाओं को एक तरीका सिखाया था, जिससे वो सहज और सरल तरीके से साड़ी पहन सकें। इसी वजह से ब्रह्मिका साड़ी को ठाकुरबाड़ीर साड़ी भी कहा जाता है।