प्रयागराज, (मोहम्मद मोइन)। पुलवामा में पिछले साल हुए आतंकी हमले ने देश में कोहराम मचा दिया था। इस हमले के बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तान के खिलाफ एयर स्ट्राइक की तो पूरा देश राष्ट्रवाद के बुखार में जकड़ गया था। पुलवामा चुनावी मुद्दा भी बना था और इसने चुनाव में ज़बरदस्त असर भी डाला था। हमले में शहीद हुए जवानों को लेकर उस वक्त बड़ी -बड़ी घोषणाएं की गईं थीं, तमाम वायदे किये गए थे, लेकिन जवानों की शहादत के नाम पर वोट लेने के बाद ज़िम्मेदार लोग इन वायदों को भूल गए।


प्रयागराज के शहीद महेश यादव के परिवार को आज तक न तो पेंशन मिली, न सरकारी नौकरी। शहीद के सम्मान में न तो कोई मूर्ति लगी, न सड़क बनी और न ही स्कूल खुला। शहीद के बच्चे अब हजारों रूपये की फीस चुकता कर पढ़ाई करने को मजबूर हैं। बरसी के मौके पर महेश के परिवार वालों को एक तरफ उनके न होने का ग़म है तो साथ ही सरकारी सिस्टम की वायदाखिलाफी और उसकी बेरुखी का ज़बरदस्त मलाल भी।


महेश की शहादत के बाद उनके पिता परिवार के दूसरे बच्चों को भी देश की सेवा के लिए फ़ौज में भेजने का जो एलान कर रहे थे, नेताओं और अफसरों के यहां चक्कर लगाने के बाद मायूस होकर अब वह उससे तौबा कर चुके हैं और एक महीने बाद लखनऊ में अनशन शुरू करने की बात कह रहे हैं। पुलवामा हमले की बरसी पर शहीदों के प्रति लापरवाह सिस्टम को आइना दिखाने वाली यह खास रिपोर्टचौंकाने वाली भी है और साथ ही सोचने वाली भी।

पुलवामा में पिछले साल वैलेंटाइन डे यानी चौदह फरवरी को हुए आतंकी हमले में जो चालीस जवान शहीद हुए थे, उनमें प्रयागराज के मेजा इलाके के रहने वाले महेश यादव भी शामिल थे। सीआरपीएफ की एक सौ अठारहवीं बटालियन में कांस्टेबल रहे महेश यादव अपने परिवार के इकलौते कमाऊ सदस्य थे। उन पर बूढ़े व बीमार माता -पिता, दादा, पत्नी व दो बेटों के साथ ही छोटे भाई व बहन को पालने की ज़िम्मेदारी थी। घर का खर्च मुश्किल से चलता था।



हमले के कुछ घंटे बाद ही गांव में महेश की शहादत की खबर आई तो कोहराम मच गया था। दो दिनों तक गांव के किसी भी घर में चूल्हा नहीं जला था। गांव ही नहीं आस- पास के तमाम इलाकों में मातम पसरा हुआ था। हर कोई महेश की शहादत पर आंसू बहा रहा था। पत्नी संजू, बहन संजना और मां शांति देवी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। पांच और छह साल के बेटों साहिल व समर को तो इस बात का एहसास तक नहीं था, कि पिता का साया उनके सर से हमेशा के लिए उठ चुका है।
जवान बेटे की अर्थी को कांधा देने वाले महेश के पिता राजकुमार ने उस वक्त रुंधे हुए गले से यह एलान किया था कि उन्हें इस बात का गर्व है कि उनके बेटे ने देश के लिए कुर्बानी दी है। उन्होंने यह भी कहा था एक बेटे को खोने के बावजूद वह छोटे बेटे अमरेश और बड़ा होने पर महेश के दोनों बेटों को भी फ़ौज में भेजकर उन्हें देश की सेवा करने और देश के दुश्मनों को सबक सिखाने का मौका देने में कतई नहीं हिचकेंगे। उस वक्त उनके घर मंत्रियों -सांसदों और दूसरे नेताओं के साथ ही तमाम अफसरों व अन्य लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था। सरकार और प्रशासन ने उनके परिवार को मदद देने और महेश यादव की शहादत का सम्मान करने के लिए तमाम वायदे किये थे।


तेरहवीं तक उनके घर मेले सरीखा माहौल रहता था। परिवार वालों को उस वक्त यह एहसास होता था कि देश के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाले महेश की शहादत का ऐसा सम्मान होगा, जिसे देखकर उनका सीना हमेशा गर्व से चौड़ा होता रहेगा। लेकिन उन्हें शायद इस बात का कतई एहसास नहीं था कि नेताओं और अफसरों के वायदे अक्सर झूठ ही साबित होते हैं।



अंतिम संस्कार से पहले महेश के परिवार के कम से कम एक सदस्य को नौकरी देने, दूसरे पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार करने, हाइवे से घर तक पक्की सड़क बनवाने, घर के पास हैंडपंप लगवाने, बच्चों को मुफ्त पढ़ाई कराने, पत्नी को पेंशन देने, खेती के लिए डेढ़ एकड़ ज़मीन दिए जाने, महेश के सम्मान में गांव में उनकी मूर्ति लगाने, शहीद स्मारक बनाए जाने और शहीद के नाम पर किसी स्कूल या कालेज का नामकरण किये जाने समेत तमाम वायदे किये गए थे, लेकिन साल भर बीतने के बाद परिवार को ग्यारह लाख रूपये की आर्थिक मदद के अलावा आज तक कोई मदद नहीं मिली। न तो छोटे भाई व पत्नी को नौकरी मिली, न बच्चों की फीस माफ़ हुई। घर के बाहर की सड़क का वह हाल है कि बिना गिरे सौ मीटर पैदल चलना भी मुश्किल होता है। महेश के सम्मान में न तो कोई मूर्ति लगी है और न ही कोई गेट बनाया गया। उनके नाम पर कोई स्कूल कालेज भी नहीं खुला। परिवार को पेट्रोल पम्प देने के वायदे पर भी कुछ नहीं हुआ। खेती के लिए डेढ़ एकड़ ज़मीन का भी कोई अता -पता नहीं।


पुलवामा हमले को एक साल पूरा हो गया है। इस एक साल में एक पल भी ऐसा नहीं बीता, जब महेश के परिवार ने उनकी याद में आंसू न बहाए हों। उन्हें बेटे के जाने का जितना ग़म है, उससे कहीं ज़्यादा अफ़सोस नेताओं और अफसरों की लापरवाही व बेरुखी का है। पिता राजकुमार यादव और छोटे भाई अमरेश के मुताबिक़ तेरहवीं के बाद आज तक न तो कोई नेता उनके घर झांकने पहुंचा और न ही कोई अफ़सर। तमाम ज़िम्मेदार लोगों के घरों और दफ्तरों के उन्होंने एक साल में खूब चक्कर भी लगाए, लेकिन या तो कोई मिलता नहीं है या फिर टालमटोल कर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करता है। सिस्टम के नकारेपन से दुखी पिता राजकुमार ने तो अब परिवार के किसी बच्चे को फ़ौज में भेजने से तौबा कर लिया है। परिवार वालों का साफ़ कहना है कि वह भीख नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ किये गए वायदों के पूरा होने की उम्मीद भर लगाए हैं। परिवार वालों ने बरसी के मौके पर नम आंखों के बीच यह एलान किया है कि अगर ज़िम्मेदार लोगों ने एक महीने में उनसे किये वायदों को पूरा नहीं किया तो वह लोग पंद्रह मार्च से लखनऊ में सीएम आफिस के बाहर अनशन पर बैठने को मजबूर होंगे।


पुलवामा हमले की बरसी पर देश एक बार फ़िर ग़म और गुस्से में है। शहीदों के परिवारों के दर्द को समझा व महसूस किया जा सकता है, लेकिन जिन परिवार वालों को अपना बेटा खोने के बावजूद शहादत का गर्व होना चाहिए था, अगर आज सरकार और प्रशासन की बेरुखी और लापरवाही के चलते उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं तो यह न सिर्फ सिस्टम के मुंह पर तमाचा है, बल्कि शहीदों का अपमान भी। अगर यही हाल रहा तो कल को लोग फ़ौज में जाने से हिचकेंगे और सवा सौ करोड़ भारतवासियों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।