Rudraprayag Kalimath Temple: नवरात्रि पर्व पर आस्था, आध्यात्म और पवित्रता की त्रिवेणी सिद्धपीठ कालीमठ और कालीशिला में बड़ी संख्या में भक्त मां काली के दर्शन के लिए पहुंच रहे हैं. माना जाता है कि जो भी भक्त मां काली के दरबार में श्रद्धा भाव से पूजा अर्चना करता है, उसकी मनोकामना पूरी होती है. शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि प्राचीन काल में जब आसुरी शक्तियों से देवतागण प्रताड़ित होने लगे, देवताओं ने भगवान शिव की तपस्या की, कई वर्ष बाद शिव भोले प्रसन्न हुए और राक्षसों के उत्पात से बचने का उपाय पूछा. प्रभु ने असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि मां काली की तपस्या करो, वो ही तुम्हें मुक्ति का उपाय बता सकती हैं.


नवरात्रि की अष्टमी के दिन होता है मेले का आयोजन 


देवताओं ने मां काली की उपासना की. देवताओं की तपस्या से प्रसन्न होकर मां काली ने देवताओं की समस्या पूछी. देवताओं ने बताया कि रक्तबीज नामक दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया है और देवतागण भागते फिर रहे हैं. मां काली क्रोधित हो गई और कालीमठ नामक स्थान पर रक्तबीज के साथ कई माह तक युद्ध करने के बाद उसका वध करके गर्भगृह में समा गयी. तब से लेकर आज तक मां काली के सभी रूपों की पूजा कालीमठ में होती है. नवरात्रि की अष्टमी के दिन कालीमठ में मेले का आयोजन किया जाता है.


आध्यात्मिक, धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से कालीमठ का विशेष महत्व है.  सरस्वती नदी के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ में स्थित मां काली, मां लक्ष्मी, मां सरस्वती, भैरवनाथ मंदिर में नवरात्रों के दौरान भक्त पूजा पाठ करते हैं. नवरात्रों के प्रथम दिन जौ बीजकर घट की स्थापना की जाती है. पुनः यजमानों के हाथों से पूजा करके मां काली के नौ रूपों का आह्वान किया जाता है. मां काली मंदिर में ब्राम्हणों द्वारा दुर्गा सप्तशती, भैरवाष्टक, काली स्तोत्र आदि का जाप करके मां काली की आरती उतारी जाती है.
सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर सरस्वती नदी के किनारे स्थित है.


मां काली ने किया था रक्तबीज नामक दैत्य का वध


केदारनाथ हाईवे पर स्थित गुप्तकाशी से कालीमठ मात्र आठ किमी दूर है. मां काली ने इस स्थान पर रक्तबीज नामक दैत्य का वध किया था. साथ ही देवताओं को यहां पर काली रूप में दर्शन दिये थे. कालीमठ में मां काली, महालक्ष्मी और सरस्वती के रूप में देवी का पूजन होता है. इस दिव्य स्थान में प्राचीनकाल से अखंड धुनी प्रज्जवलित है. इस धुनी को धारण करने से भूत-पिचाश की बाधाएं दूर होती हैं. यहां पर प्रेत शिला, शक्ति शिला, मातंगी सहित अन्य शिलाएं भी विराजमान हैं. इसके अलावा क्षेत्रपाल, सिद्धेश्वर महादेव सहित गौरीशंकर के मंदिर भी विद्यमान हैं.


सिद्धपीठ कालीमठ में पूजा-अर्चना और दर्शन करने से सभी भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. उन्होंने बताया कि जब रक्तबीज राक्षस का देवताओं से युद्ध चल रहा था तो उससे छुटकारा पाने के लिये देवताओं ने देवी की स्तुति की थी. जिसके बाद देव ने काली रूप में यहां पर देवताओं को दर्शन देकर रक्तबीज राक्षस का वध किया था. जिसके बाद से इस स्थान को सिद्धपीठ कालीमठ कहा जाता है.


यह मंदिर नागर शैली में बना है. मान्यता है कि जब महाकाली रक्तबीज दैत्य का वध करने के बाद शांत नहीं हुई तो शिवजी मां के चरणों के नीचे लेट गए. जैसे ही महाकाली ने शिवजी के सीने में पैर रखा, वह शांत होकर इसी कुंड में समा गई. अष्टमी के दिन भक्त मंदिर में मशाल जलाकर स्थानीय वाद्य यंत्र की धुन पर कुंड के चारों ओर घूमते हैं. माना जाता है कि ऐसा करने से दैत्य भाग जाते हैं.


अस्सी-नब्बे के दशक में था कालीमठ में पशुबलि का चलन


अस्सी-नब्बे के दशक में कालीमठ में पशुबलि का चलन था, भक्त अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर कालीमठ में बकरे तथा नर भैंसो की बलि देते थे, लेकिन सामाजिक संगठनों के सहयोग से आज इस क्षेत्र में पशुबलि प्रथा पूर्णरूप से बन्द हो गयी है. पूर्व में नवरात्रों का आगाज मां काली के मंदिर में बकरे की बलि के साथ ही होता था, लेकिन आज इस पवित्र मंदिर में बलि प्रथा बन्द हो चुकी है, जिसकी वजह से इस मंदिर की धार्मिक तथा आध्यात्मिक महत्ता अधिक बढ़ गयी है.


मंदिर के पुजारियों का कहना है कि जो भी भक्त मंदिर में आस्था के साथ पहुंचता है, उसकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.कहते हैं मां काली अपने भक्तों को निराश नहीं करती हैं. जो भी भक्त श्रद्धा से मां के दरबार में पहुंचता है, उसे मां कुछ न कुछ जरूर देती हैं. 


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