भारतीय संस्कृति में ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब जति के भेद को दरकिनार कर समाज नई दिशा की तरफ चल पड़ा। एक तरफ तो हमारे सामने समाज के विखंडन की बात सामने आती है तो वहीं दूसरी तरफ यह उदाहरण भी है कि कैसे संत रविदास को पूरे समाज से सम्मान, प्रेम प्राप्त हुआ और इन्हें आज भी कई लोग भगवान की तरह पूजते हैं। संत रविदास इन्हीं अंतर्विरोधों का एक सशक्त उदाहरण हैं जिनसे आज के समाज को प्रेरणा लेनी चाहिए।


संत रविदास सिर्फ कवि ही नहीं बल्कि समाज सुधारक, दार्शनिक, भविष्यद्रष्टा, जैसी अनेक विशेषताओं से विभूषित थे। उनके व्यक्तित्व को एक जाति विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता है। संत रविदास को जयदेव, नामदेव और गुरुनानक जैसे महान संतों की अविरल परंपरा की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में जाना जाता है। संत रविदास भक्ति में भाव और सदाचार को महत्व पर जोर देते थे। वो मनुष्य के जन्म की सार्थकता पर विश्वास रखते थे।


संत रविदास ने अपनी अनेक रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी लोकवाणी के अदभुत प्रयोग से मानव धर्म और समाज पर अमिट प्रभाव पड़ा, जिसका असर आज भी देखने को मिलता है। एक जगह रविदास जी कहते हैं।


ऐसा चाहू राज मैं, मिले सभी को अन्न।
छोटे-बड़े समबसे, रैदास रहे प्रसन्न॥


इन पंक्तियों से रविदास जी की मानवता के प्रति भावना को समझा जा सकता है। वो ऐसा राज चाहते थे जिसमें सबको अन्न मिले, छोटे-बड़े सब बराबर हों, ऐसे में ही उनकी सच्ची खुशी है। यह भाव बड़े से बड़े लोकतंत्र और कल्याणकारी राज्य को परिभाषित कर सकता है। रविदास जी के बारे में कई प्रेरक प्रसंग हैं, कहा जाता है कि पैरों में कांटा न चुभ इसलिए वो मार्ग में आने-जाने वालों को अपने हाथों से बनाई चप्पलें मुफ्त में दे देते थे। संत दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझते थे।


संत रविदास से जुड़ा एक बहुप्रचारित वाक्य 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' वाला भी है। आज भी अक्सर हम इस वाक्य को अपनी दिनचर्या में कई बार कहते और सुनते हैं। देखने वाली बात यह है कि कितना आसानी से एक संत ने समाज को यह संदेश दिया है कि यदि मन लोभ, लालच से भरा है तो पुण्यकर्मों का कोई महत्व नहीं है। संत रविदास ने सम्यक आजीविका पर जोर देकर लोगों को नेक कमाई की शिक्षा भी दी और उसे ही धर्म मानने को कहा- वो ये भी कहते हैं कि...


स्रम को ईस्वर जानि कै, जो पूजै दिन रैन।
रैदास तिनि संसार मा, सदा मिलै सुख चैन।।


मध्यकाल में हालात ऐसे बन गए थे कि भारतीय परिवेश में समाज को एक दिशा की जरूरत थी और इसी दौर में 1398 की माघ पूर्णिमा को काशी में संत रविदास का जन्म हुआ। संत रविदास बचपन से ही प्रतिभा के धनी थे और धर्म कर्म में उनकी विशेष रुचि थी। उनके कालजयी लेखन को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि उनकें रचित 40 दोहे गुरु ग्रन्थ साहब जैसे महान ग्रन्थ में सम्मिलित किए गए हैं।


कहा तो यह भी जाता है कि संत रविदास से प्रभावित होकर मीराबाई ने उन्हें अपना गुरु मान लिया था। भक्त मीरा नें स्वरचित पदों में अनेकों बार संत रैदास का स्मरण गुरु स्वरूप किया है। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में मीरा के मंदिर के आमने एक छोटी छतरी बनी है जिसमें संत रविदास के पदचिन्ह दिखाई देते है।


मीराबाई ने स्वयं अपने पदों में बार-बार रविदास जी को अपना गुरु बताया है।


“खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी।
सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर।
मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास।
चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस।
जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।”


अपनें सहज-सुलभ उदाहरणों वाले और साधारण भाषा में दिए जानें वाले प्रवचनों और प्रबोधनों के कारण संत रविदास भारतीय समाज में अत्यंत आदरणीय और पूज्यनीय हैं। वे भारतीय वर्ण व्यवस्था को भी समाज और समय अनुरूप ढालनें में सफल हो चले थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन धर्म और राष्ट्र रक्षार्थ जिया और चैत्र शुक्ल चतुर्दशी संवत 1584 को उन्होंने शरीर त्याग दिया।


असल में संत रविदास को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब इस भारत भूमि पर सभी वर्णों, जातियों, समाजों और वर्गों के लोग एक मार्ग पर चलें। रविदास जी के संदेश आज भी हमें समाज कल्याण का मार्ग दिखाते है। संत रविदास ने अपने जीवन के व्यवहार से यह प्रमाणित किया है कि इंसान चाहे किसी भी कुल में जन्म ले लेकिन वह अपनी जाति और जन्म के आधार पर कभी महान नहीं बनता है। इंसान महान तब बनता है जब वह दूसरों के प्रति श्रद्धा और भक्ति का भाव रखते हुए समाज के प्रति अपना जीवन न्योछावर कर दे।