आजमगढ़, एबीपी गंगा। कैफी आजमी उन चुनिंदा शायरों में शामिल हैं जिन्होंने रूमानियत के साथ-साथ समाज को भी अपनी कलम से दिशा दिखाई। उनके लिखे हर शब्द को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है और ये लफ्ज दिल में उतरते ही जाते हैं। आजमी साहब ने वही लिखा जो लोगों के जहन में था, उन्होंने वही समझाया जो लोग समझना चाहते थे वो सिर्फ एक इंसान नहीं बल्कि एक ऐसी आवाज थे जो जहन को सुकून पहुंचाती है।


कैफी पर लिखने को बहुत कुछ है लेकिन इसकी शुरुआत कहां से की जाए, इस सवाल का जवाब खोजना बड़ा मुश्किल है। तो चलिए उस गुजरे दौर में चलते हैं जब इस अजीम शायर अपनी कलम को पहली बार पन्नों में उकेरा था। कैफी  सिर्फ 11 बरस के थे, उन्होंने एक गजल लिखी और एक महफिल में इसे सुना भी आए। कैफी से इस तरह की शायरी उम्मीद किसी को न थी लेकिन वक्त को एहसास हो गया था कि एक समय की शुरूआत हो चुकी है जिसे जमाना सदियों तक याद रखेगा।


इस गजल ने कैफी साहब के हुनर को पंख दिए और वो वक्त भी आया जब इसे आवाज मिली बेगम अख्तर की। यकीन मानिए, ये तो सिर्फ आगाज था अभी तो न जाने कितने लफ्जों की जुगलबंदी लोगों के दिलों में तासीर बनकर उतरने वाली थी। फ्लैश बैक से शुरू करें तो इस अजीम शायर को पहचानने के लिए सौ बरस पीछे जाना होगा। पिता जमींदार, ऐशो आराम की जिंदगी लेकिन फिक्र किसे वो तो अपनी ही धुन में मस्त था। फकीर और मलंग से भी कुछ सीखने को मिला तो कैफी साहब ने इसे सहर्ष स्वीकार किया और क्या लिखा....आप भी पढ़ें।


इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े


हंसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े


जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-गम


यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े


एक तुम के तुम को फिक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है


एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े


मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह


जी ख़ुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े


साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर


मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े


कैफी साहब का जन्म 14 जनवरी 1918 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के पास एक छोटे से गांव मिजवां में हुआ था। असली नाम था अतहर हुसैन रिजवी। मिजवां के बारे में शबाना आजमी खुद कहती हैं, 'एक बार मैं आजमगढ़ के उस गांव में गई जहां अब्बा का जन्म हुआ था। 1980 के आसपास की बात है। मैं मिजवां गई थी। आजमगढ़ के उस गांव में पहुंचकर मैं हैरान हो गई। उस गांव में बिजली पानी जैसी बुनियादी सहूलियतें तक नहीं थी। वहां जाकर मैंने सोचा कि अब्बा ने वहां से निकलकर पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाई थी।'


कैफी आजमी ने 19 बरस की उम्र में कम्यूनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली थी। कैफी उनके पेपर के लिए लिखने लगे। चालीस रुपए जेब में होने के बाद भी कैफी कभी परेशान नहीं होते थे। तमाम शायर उनके दोस्त थे। फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, फैज अहमद फैज, साहिर लुधियानवी, मजरूह साहब के अलावा मदन मोहन, बेगम अख्तर, एसडी बर्मन जैसे बड़े नामों से कैफी का याराना था।अल्हड़पन में भी मौजमस्ती थी। उस वक्त भी कैफी साहब अपनी पूरी कमाई कम्यूनिस्ट पार्टी को दे देते थे। वो अपने लिए सिर्फ 40 रुपए रखते थे।


शबाना और बाबा के जन्म के बाद बाद घर चलाने के लिए शौकत आजमी ने ऑल इंडिया रेडियो में काम किया, फिर उन्होंने पृथ्वी थिएटर ज्वाइन किया। एक बार तो शौकत आजमी को कहीं 'बाहर' जाना था। मुफलिसी का आलम ये था कि उनकी चप्पल टूट गई थी। उस रोज उन्होंने नाराज होकर कैफी से कहा कि वो पैसों की किल्लत की बात सुन-सुनकर तंग आ गई हैं। कैफी ने परेशान होने या उन्हें कोई जवाब देने की बजाए, उनकी चप्पल ली। उसे अपनी आस्तीन में छुपाकर ले गए और थोड़ी देर में जब वापस लौटे तो उनके हाथ में मरम्मत की हुई चप्पल के साथ-साथ पचास रुपए भी थे। बेगम खुश हो गईं और टूअर पर चली गईं।


ये वो दौर था जब मुंबई के फिल्मकारों को अच्छे शायरों की तलाश रहती थी जो उनके लिए लिखें। ऐसी ही तलाश में उनके पास चेतन आनंद पहुंचे। उन दिनों चेतन आनंद की कुछ फिल्में कुछ खास नहीं चल रही थीं। वो चाहते थे कि कैफी साहब उनकी फिल्म के लिखें। कैफी साहब ने कहा कि क्यों मेरे से लिखवा रहे हैं? हम दोनों के सितारे गर्दिश में हैं। चेतन आनंद ने कहा- कैफी साहब, क्या मालूम इसके बाद ही हम दोनों के सितारे बदल जाएं...और फिर सितारे बदल ही गए।


फिल्मी गाने लिखने के लिए कैफी साहब के लिखने का अंदाज भी खास था। वो आखिरी समय तक गाने को टालते रहते थे। यहां तक कि जिस दिन उनके गाने की ‘डेडलाइन’ होती थी उस दिन उन्हें गाना लिखने के अलावा बाकी सारे काम याद आते थे। लिखने की टेबल की सफाई से लेकर दोस्तों के खतों का जवाब देने तक। लेकिन सच ये है कि इस दौरान उनके अंदर गाना ही चल रहा होता था। आप कैफी की रेंज सोचिए, वो प्रेम भरे गीत लिखते थे. क्रांतिकारी गीत लिखते थे, सरहद पर तैनात जवानों का जोश भरने वाले गाने लिखते थे, उनकी कलम से निकले गीतों को याद कीजिए- होके मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा से लेकर देखी जमाने की यारी बिछड़े सभी बारी-बारी। इसके अलावा वक्त ने किया क्या हसीं सितम, या दिल की सुनो दुनिया वालों, जरा सी आहट होती है तो ये दिल सोचता है, ये नयन डरे डरे, मिलो न तुम तो हम घबराए, ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं...ये तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कोई एक शायर कैसे इतने अलग-अलग फलक की रचनाएं गढ़ सकता है। खालिस शायरी पर भी उनकी तमाम किताबें हैं। 'औरत', 'मकान' जैसी कविताएं हैं जो उनकी इस बात को दर्शाती हैं कि कविता समाज को बदलने का माध्यम होनी चाहिए।



ये भी कैफी आजमी की कलम का ही जादू है कि वो बड़ी ही सादगी से लिख देते हैं- कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों है, वो जो अपना था वो और किसी का क्यों है। शबाना आजमी कहती हैं- 'इतनी सीधी तरह से कम शब्दों में इतना खूबसूरत गाना हिंदी फिल्मों में मैंने नहीं सुना है, अब्बा कमाल थे'। अपने अब्बा को कमाल बताने वाली ये वही शबाना आजमी हैं जो बचपन में ये नहीं समझ पाती थीं कि उनके अब्बा हमेशा घर पर ही क्यों रहते हैं और कुर्ता पायजामा ही क्यों पहनते हैं। हां, शबाना ये जरूर कहती हैं कि उन्हें अब्बा ने कभी डांटा नहीं। गंगा जमुनी तहजीब सिखाई, बचपन में होली,दीवाली, क्रिसमस सब मनाना सिखाया, उन्होंने ही जीवन का बड़ा सच सिखाया। वो सच था- ब्लैक इज ब्यूटीफुल टू। ये सच शबाना ने उस दिन सीखा था जब उनके अब्बा उनके लिए एक काली गुड़िया लाए थे। शबाना छोटी थीं उन्हें भी नीली आंखों और भूरे बाल वाली गुड़िया चाहिए थी। जिस रोज कैफी साहब ने उन्हें समझाया था 'ब्लैक इज ब्यूटीफुल टू', इसी सीख में शायद कैफी साहब की शख्सियत का सच भी है।