प्रयागराज, एबीपी गंगा। आगरा में आज सड़क हादसे में उनतीस मुसाफिरों की मौत के बाद यूपी रोडवेज की कार्यप्रणाली एक बार फिर सवालों के घेरे में है। आशंका जताई जा रही है कि यह हादसा संविदा पर रखे गए ड्राइवर को नींद आने की वजह से हुआ। अगर हकीकत यही है तो निश्चित तौर पर ड्राइवर की लापरवाही तो है ही, लेकिन संविदा कर्मचारियों को बेहद कम पैसे देकर उनसे दोगुना काम लेते हुए दोनों हाथों से मुनाफा कमाने की रोडवेज की मनमानी नीति भी उसके लिए कम ज़िम्मेदार नहीं है। हादसे के बाद से सिर्फ एक रूपये छत्तीस पैसे प्रति किलोमीटर की दर से भुगतान पाकर सोलह- सत्रह घंटे काम करने वाले संविदा कंडक्टर्स और ड्राइवर्स के शोषण व बेबसी पर फिर से आवाज उठने लगी है।


यूपी रोडवेज के जिन कर्मचारियों पर रोजाना लाखों मुसाफिरों को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी होती है, वह किस हालत और कितने पैसे में काम करते हैं, इसकी हकीकत जानते ही आपके पैरों तले जमीन खिसक सकती है। आपको यह एहसास होने लगेगा कि रोडवेज सिर्फ पैसा कमाने में लगा रहता है और उसे आपकी सुरक्षा की कोई फिक्र नहीं होती। यानी सैकड़ों रूपये देकर भी आप रोडवेज की बसों में सिर्फ भगवान भरोसे ही सफर करते हैं। यमराज ने आंखें मूंद लीं तो ठीक, नहीं तो अंजाम आज आगरा में हुए हादसे की तरह ही होता है।



संविदा कर्मचारियों का शोषण


यूपी में राज्य सड़क परिवहन निगम यानी रोडवेज में इन दिनों तकरीबन छब्बीस हजार कंडक्टर व ड्राइवर हैं। इनमे से दो तिहाई के करीब यानी तकरीबन साढ़े सत्रह हजार संविदा पर काम करते हैं। रोडवेज उन्हें अपना कर्मचारी ही नहीं मानता और उन्हें वेतन देने के बजाय काम के बदले मेहनताने का भुगतान करता है। जिन संविदा कंडक्टर व ड्राइवर्स पर सफर को सुरक्षित बनाने की जिम्मेदारी होती है, उन्हें ड्यूटी करने के एवज में प्रति किलोमीटर का सफर तय करने पर सिर्फ एक रूपये छत्तीस पैसे की दर से भुगतान किया जाता है। अगर किसी ड्राइवर या कंडक्टर ने महीने में कम से कम बाइस दिन ड्यूटी की है और ड्यूटी के दौरान पांच ह किलोमीटर से ज़्यादा का सफर तय किया है तो तीन हज़ार रूपये इंसेंटिव के तौर पर अलग से दिए जाते हैं।


बढ़ती बेरोज़गारी के चलते संविदा स्टाफ की संख्या ज़्यादा है। रोडवेज की खटारा बसें अक्सर खराब भी रहती हैं। ऐसे में पांच हजार में एक किलोमीटर की दूरी भी कम होने या ड्यूटी के कार्यदिवस बाइस से घटकर इक्कीस दिन होने पर इंसेंटिव रोक दिया जाता है। तीन साल की सेवा के बाद हर महीने बाइस दिन काम करने या फिर हर साल हज़ार किलोमीटर की ड्यूटी करने पर चौदह हजार रूपये प्रतिमाह का मानदेय तय कर दिया जाता है। यही दूरी साल में बढ़कर जब अठहत्तर हजार हो जाती है तो मानदेय बढ़कर सत्रह हजार रूपये महीना हो जाता है। मानदेय के दायरे में आने वाले संविदा कर्मचारियों की संख्या बेहद सीमित है।


15 से 16 घंटे बिना आराम किये ड्यूटी


संविदा कर्मचारी जहां भी बस लेकर जाते हैं, वहां से उन्हें ही उसे वापस भी लाना होता है। ऐसे में कर्मचारियों को अक्सर ही लगातार पंद्रह से अठारह और बीस घंटे तक ड्यूटी करना होता है। खटारा बसों में पंद्रह सोलह घंटे ड्यूटी करने के बाद शरीर जब थककर जवाब देने लगता है, तो उसके बाद भी कई बार उन्हें आराम दिए बिना ही नई ड्यूटी पर भेज दिया जाता है। मना करने पर कभी ड्यूटी न देने और कभी संविदा खत्म कर बर्खास्त करने की धमकी दी जाती है। इतना ही नहीं अगर बस में कोई तोड़फोड़ होती है। कोई सामान खराब होता है या फिर बस में डीजल की खपत ज्यादा होती है तो उसकी वसूली भी ड्राइवर से ही की जाती है। जुर्माना लगने के बाद कई बार महीने भर की मेहनत के बावजूद हाथ में फूटी कौड़ी भी नहीं आती। संविदा पर ड्यूटी करने वाले ड्राइवर व कंडक्टर सब कुछ जानते समझते हुए भी मुंह बंद रखकर इसलिए ड्यूटी करने पर मजबूर रहते हैं क्योंकि बेरोजगारी के इस दौर में उन्हें कुछ आर्थिक मदद तो हो ही जाती है।


समझा जा सकता है कि जब कोई ड्राइवर लगातार सोलह-सत्रह घंटे ड्यूटी करेगा। बस चलाने के दौरान भी नींद में ऊंघता रहेगा और पसीने से लथपथ रहेगा तो वह किस मानसिक स्थिति के साथ सफर को सुरक्षित बनाने की कोशिश करेगा। यकीनी तौर पर दर्जनों मुसाफिरों के साथ ही खुद संविदा ड्राइवर व कंडक्टर की अपनी ज़िंदगी भी दांव पर लगी होती है, इसलिए वह सफर को सुरक्षित बनाने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन अगर कभी जरा सी भी चूक होती है तो नतीजा आगरा हादसे जैसा ही होता है। इस बारे में रोडवेज यूनियन के पदाधिकारी भी मानते हैं कि विभाग संविदा कर्मचारियों का शोषण करता है, लेकिन वह बर्खास्त होने के डर से कभी मुंह नहीं खोलते। यूनियन ने भी कई बार इसे लेकर आवाज़ उठाई है, लेकिन वायदों और आश्वासनों के अलावा बात कभी आगे नहीं बढ़ पाती। हैरानी की एक बात यह भी है विभाग जब नई भर्तियां करता है तब भी न तो बरसों से संविदा पर काम कर रहे कर्मचारियों को रेग्युलर करने की कोशिश की जाती है और न ही भर्तियों में उन्हें कोई वेटेज दिया जाता है।


रोडवेज की बसों की हालत भी किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में संविदा कर्मचारियों के भरोसे सफर मुसाफिरों के लिए भी अक्सर मुसीबत का सबब बन जाता है। यात्री भी मानते हैं कि यूपी रोडवेज का सफर कतई खतरे से खाली नहीं होता, लेकिन अलग अलग वजहों से वह इस खतरे को नजरअंदाज करते हुए सफर करने को मजबूर होते हैं।


रेलवे से ज्यादा रोडवेज का किराया


यूपी रोडवेज आमतौर पर हर थोड़े दिन में किराया बढ़ाता है। रेलवे के मुकाबले वह मुसाफिरों से तीन गुना से ज़्यादा किराया वसूलता है, लेकिन इसके बावजूद वह सिर्फ मुनाफा कमाने में ही लगा रहता है और उसे मुसाफिरों की जान की कोई फ़िक्र नहीं होती। अगर ऐसा न होता तो रोडवेज अपने संविदा ड्राइवर्स व कंडक्टर्स को बेहतर माहौल में ठीक ठाक पैसा देकर मुसाफिरों के सफर को ज़्यादा सुरक्षित बनाने की कोशिश जरूर करता। जो संविदा कर्मचारी खुद अपनी नौकरी और अपनी नौकरी को लेकर फिक्रमंद रहते हों, वह किस मानसिक स्थिति के साथ ड्यूटी करते होंगे, इसका अंदाजा खुद ही लगाया जा सकता है।