नई दिल्ली: उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ सीबीआई जांच के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है. हाई कोर्ट ने एक मामले में दो पत्रकारों के ऊपर दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए सीएम पर लगे आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश दे दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि बिना सीएम का पक्ष सुने इस तरह का आदेश देना पहली नजर में सही नहीं है.
क्या है मामला?
एक न्यूज़ चैनल के सीईओ उमेश कुमार ने फेसबुक पर एक वीडियो अपलोड कर यह आरोप लगाया था कि 2016 में झारखंड में बीजेपी के प्रभारी रहते हुए त्रिवेंद्र सिंह रावत ने रांची के एक व्यक्ति से 25 लाख रुपए की रिश्वत ली थी. झारखंड गौ सेवा आयोग का चेयरमैन बनने के लिए उस व्यक्ति ने जो रिश्वत दी थी, उसे सीएम के दो रिश्तेदारों के खाते में ट्रांसफर करवाया गया था. पत्रकार ने जिन 2 लोगों को सीएम का रिश्तेदार बताया था, उन्होंने देहरादून के नेहरू नगर थाने में एफआईआर दर्ज करवाई. उन्होंने बताया कि वह सीएम से रिश्तेदार नहीं हैं. वीडियो में फर्जी कागजात दिखाकर उन्हें बदनाम किया गया है. इस मामले में पुलिस ने उमेश कुमार और उनके साथी पत्रकार शिव प्रसाद सेमवाल के खिलाफ धोखाधड़ी, फर्जीवाड़ा जैसे आरोपों में एफआईआर दर्ज की. साथ ही सरकार को अस्थिर करने की साजिश रचने के लिए राजद्रोह की धारा भी एफआईआर में जोड़ी गई.
दोनों पत्रकारों ने एफआईआर को निरस्त करने के लिए उत्तराखंड हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की. हाई कोर्ट के जस्टिस रविंद्र मैथानी की सिंगल जज बेंच ने न सिर्फ एफआईआर निरस्त करने का आदेश दिया, बल्कि मुख्यमंत्री के ऊपर लगे आरोपों की सीबीआई जांच का भी आदेश दे दिया. जज ने कहा कि लोगों के सामने आरोपों की सच्चाई सामने आनी ज़रूरी है.
एटॉर्नी जनरल की दलील
इस फैसले के खिलाफ उत्तराखंड सरकार और सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. मामला जस्टिस अशोक भूषण, एम आर शाह और आर सुभाष रेड्डी की बेंच के सामने लगा. उत्तराखंड सरकार की तरफ से पैरवी करते हुए एटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल पत्रकारों के खिलाफ हाई कोर्ट के आदेश को गलत बताया.
एटॉर्नी जनरल ने कोर्ट को बताया कि हाई कोर्ट ने सीएम के खिलाफ सीबीआई जांच का आदेश जिस मामले दिया, उसमें कोर्ट के सामने ऐसी कोई मांग नहीं रखी गई थी. कोर्ट ने आदेश देने से पहले सीएम को नोटिस जारी कर उनका पक्ष भी नहीं सुना. पहले सुप्रीम कोर्ट कई फैसलों में यह कह चुका है कि किसी के खिलाफ जांच का आदेश का एकतरफा आदेश नहीं दिया जाना चाहिए. ऐसा आदेश देने से पहले उस व्यक्ति का पक्ष जरूर सुना जाना चाहिए.
वेणुगोपाल ने कहा, “हाई कोर्ट के सिंगल जज को इस बात पर भी विचार करना चाहिए था कि उनका यह एकतरफा आदेश सरकार को अस्थिर करने वाला हो सकता है. उन्होंने बिना विचार किए और बिना सीएम का पक्ष सुने एक आदेश दे दिया. उसका परिणाम यह निकला है कि सीएम के इस्तीफे को लेकर आंदोलन शुरू हो गया है. ऐसे में जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट तुरंत इस आदेश पर रोक लगाए.“
SC ने दी सीएम को राहत
वेणुगोपाल के बाद सीएम रावत के लिए पेश वकील मुकुल रोहतगी और पत्रकार उमेश कुमार के वकील कपिल सिब्बल ने दलीलें रखने की कोशिश की. लेकिन जजों ने उन्हें रोक दिया. जजों ने कहा, “इस मामले में अभी इससे ज्यादा दलीलों की जरूरत नहीं है. आदेश पहली नजर में गलत नजर आता है. इस पर रोक लगाए जाने की जरूरत है. हम आदेश पर रोक लगाते हुए सभी पक्षों को नोटिस जारी कर रहे हैं. 4 हफ्ते बाद इस पर आगे सुनवाई होगी.“
बेंच की तीखी टिप्पणी
हाईकोर्ट के फैसले पर तल्ख टिप्पणी करते हुए जजों ने कहा, “इस तरह का आदेश कैसे दिया जा सकता है? मामले में न तो सीएम के खिलाफ जांच की कोई मांग की गई थी, न ही सीएम को नोटिस जारी कर कोर्ट ने उनकी बात सुनी. अचानक सबको हैरान करते हुए ऐसा आदेश दे दिया गया, जिस पर सुनवाई के दौरान कोई चर्चा भी नहीं हुई थी.“