1977 में देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार के गठन के बाद मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया गया था। हालांकि जनता पार्टी में फूट के बाद 1979 में सरकार गिर गई जिसके बाद अगले साल 1980 में फिर आम चुनाव कराए गए। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनावी मैदान में उतरी थीं, यह वो सीट थी जहां से वो पिछले चुनाव में हार का सामना कर चुकी थीं। इंदिरा के जवाब में विपक्ष ने भाजपा की राजमाता विजयाराजे सिंधिया को मैदान में उतारा। इंदिरा जानती थीं कि मुकाबला कड़ा है। इसीलिए उन्होंने कोई जोखिम ना मोल लेने की सोची।


इंदिरा ने इसके लिए सोशलिस्ट पार्टी के नंद किशोर से मदद की अपील की। नंद किशोर वही शख्स थे जो इंदिरा के पति फिरोज गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ते थे। इंदिरा ये जानती थी कि नंद किशोर की रायबरेली के गरीबों, पिछड़ों और वंचितों में काफी पकड़ है। हालांकि इंदिरा की मदद के जवाब में नंदकिशोर ने कांग्रेस में शामिल होने से तो इनकार कर दिया, लेकिन लेकिन उनके लिए वोट मांगने पर राजी हो गए।


नंदकिशोर ने चुनाव प्रचार के लिए उस वक्त कुछ पंक्तियां लिखी उस दौरान काफी चर्चा में रही। ये पंक्तियां थी, "मैं जानता था, गरीबों, पिछड़ों को कैसे समझाया जा सकता है।" मैंने कहा, "दो महारानियां, ग्वालियर की विजयाराजे और इंदिरा गांधी लड़ रही हैं। इनमें किसी के भी जीतने पर जनता का कोई फायदा नहीं होने वाला है। खाने तो जूते ही पड़ेंगे। सिंधिया जीतीं तो साठ और इंदिरा जीतीं तो बीस कम चालीस। इसलिए जहां कम जूते खाने पड़ें उसी की मदद करनी चाहिए।"


नंदकिशोर की ये लाइनें जनता की जुबां पर छा गई थी। इसका चुनाव में ऐसा असर दिखा की इंदिरा शानदार तरीके से चुनाव जीतीं, जबकि सिंधिया की जमानत जब्त हो गई।