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Book Review: यूपी चुनाव और राजनीति में यूपी के महत्व को समझाती किताब, पढ़ें रिव्यू

यूपी में विधानसभा चुनाव अब समाप्ति की ओर है. यूपी में होने वाले चुनाव हमेशा से ही देश के लिए अहम रहे हैं लेकिन क्या आपको पता है ऐसा क्यों है? एक नजर डालें इस पुस्तक रिव्यू पर.

UP Election: उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव अपने अंतिम दौर में हैं. इसलिये अब चुनाव परिणामों को लेकर लोगों की धुकधुकी बढ़ रही है. लोग समझ रहे हैं कि अगले महीने की दस तारीख को आने वाले नतीजे प्रदेश ही नहीं देश की राजनीति की दिशा और दशा भी तय करेंगे क्योंकि मीडिया और राजनीति के जानकारों ने इन चुनाव को 2024 का सेमी फाइनल माना है.

सवाल उठता है कि ऐसा क्या है इस विशाल प्रदेश में जो यहां के राज्य का चुनाव भी राष्ट्रीय चर्चा का मुद्दा बनता है. क्या है इस एक जमाने के सबसे बड़े और पुराने राज्य की राजनीति की तासीर. क्यों ये तासीर हर चुनाव में बदलती है. क्यों ये प्रदेश देश को लगातार प्रधानमंत्री देता है. क्यों इस प्रदेश की राजनीति जाति के इर्द गिर्द ही घूमती है. क्यों इस प्रदेश में हैं सबसे ज्यादा राजनीतिक दल. क्यों इस प्रदेश के लोगों के सीने में हर वक्त राजनीति धड़कती है. क्या है इस विशाल प्रदेश की ऐतिहासिक धरोहर और संस्कृति जिस पर यहां के लोग गर्व करते हैं. इन सारे उलझे हुये सवालों के सीधे सीधे जवाब आपको वरिष्ट पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव की किताब उत्तर प्रदेश चुनाव 2022 जातियों का पुनर्ध्रुवीकरण में मिल जायेगा.

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नौ अध्यायों में बंटी दो सौ पन्नों की इस किताब में उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि को विस्तार से बताया गया है. मुगलों, अंग्रेजों से होते हुये 1902 का यूनाइटेड प्रोविंस ऑफ आगरा एंड अवध कैसे 1937 में यूनाइटेड प्रोविंस और फिर आजादी के बाद 1950 में उत्तर प्रदेश यानी की यूपी बना. 1902 में जहां इसकी राजधानी इलाहाबाद थी जो 1920 में लखनऊ हो गयी. तेईस करोड़ की आबादी वाले 75 जिलों को लेकर बना ये राज्य कैसे आजादी के पहले से लेकर अब तक राष्ट्रीय राजनीति में अपना अलग दबदबा बनाये हुये है. इसकी वजह लेखक ने किताब में विस्तार से बतायी है.

भगवान राम और कृष्ण से लेकर बुद्ध, तुलसीदास, कबीर, सूरदास रविदास अमीर खुसरो के अलावा आजादी के बाद कैसे वरिष्ठ साहित्यकारों और जाने माने लेखक पत्रकारों की भूमि रही है उत्तर प्रदेश या यूपी. मगर यूपी इन सबसे अलग अपनी राजनीति के लिये जाना जाता रहा है. बडे कद्दावर नेताओं के गढ रहे यूपी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, पुरुषोत्तम दास टंडन, राममनोहर लोहिया से लेकर इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, मुलायम सिंह, मायावती और योगी आदित्यनाथ तक की राजनीति देखी है. यही यूपी मंडल से लेकर कमंडल तक की राजनीति का गढ रहा है. 1950 से 2022 तक 21 मुख्यमंत्री के चेहरे देख चुके यूपी की राजनीति सवर्ण से लेकर पिछड़ा और फिर दलित मुख्यमंत्री तक बहुत बदली है. इस विशाल प्रदेश की हर कुछ सालों में बदलती राजनीति को कम पन्नों में समेटने की कोशिश लेखक पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव ने की है. उनकी राजनीति की गहरी समझ इस किताब की जान है.

प्रदीप लिखते हैं कि 1952 से लेकर 2017 तक हुये विधानसभा चुनावों में प्रदेश में अगड़ी जातियों का ही वर्चस्व रहा है. जबकि अगड़ी जातियां का राज्य में प्रतिशत बीस फीसदी से ज्यादा नहीं है. 1990 तक बीच में एक बार रामनरेश यादव को छोड़ दें तो हमेशा अगड़ी जाति के नेता को ही प्रदेश की बागडोर मिली मगर 1991 से स्थिति बदली और 2017 तक पिछड़े या दलित जाति के नेता प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. विधानसभा में भी सवर्ण जाति के विधायकों की संख्या भी थोड़ी कम हुयी मगर उतनी नहीं जितनी आबादी के हिसाब से होनी चाहिये. इस विशाल प्रदेश की राजनीति की अस्थिरता देखिये कि 70 सालों में सिर्फ तीन मुख्यमंत्री ही अपना कार्यकाल पूरा कर पाये. मायावती, अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ को छोड़ दें तो बाकी के मुख्यमंत्री आते और जाते रहे. मुख्यमंत्रियों के लगातार बदलने से प्रदेश का विकास पटरी से उतरा ही रहा और प्रदेश के लोग शिक्षा बेरोजगारी और विकास के पैमानों पर दूसरे राज्यों से पीछे ही रहे.

यूपी की राजनीति ने 2022 के विधानसभा चुनाव से एक बार फिर करवट बदली है. पिछड़ों में भी अब अति पिछड़ा और दलितों में भी अति दलित वर्ग के लोग सामने आये हैं और राजनीति में अपनी हिस्सेदारी के लिये छोटे छोटे राजनीतिक दल बनाकर मैदान में उतरे हैं. किसी खास जाति से जुडे़ इन दलों की ताकत बड़ी पार्टियों ने पहचानी है इसलिये इन दलों को बीजेपी और सपा दोनों ने गठजोड़ कर पहचान दी है. सपा बसपा के अलावा अपना दल, निषाद पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, पीस पार्टी जाति और समाज आधारित पार्टियां हैं जो 2022 के चुनावों में जमकर जोर लगा रही हैं.

विधानसभा चुनावों के ठीक पहले आयी ये किताब प्रदेश की राजनीति की कई परतें खोलती हैं और चुनावों को समझने का नया नजरिया भी देती है. किताब में यही कमी खली कि लंबे समय से राजनीतिक लेखन कर रहे वरिष्ठ पत्रकार और इस किताब के लेखक के जमीनी अनुभव और नेताओं से चर्चा का जिक्र इस किताब में कम है. यदि ये भी होता तो ये किताब जानकारी प्रद होने के साथ ज्यादा रोचक भी होती.
किताब का नाम  उत्तर प्रदेश चुनाव 2022 जातियों का पुनर्ध्रुवीकरण
लेखक प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशक पेंगुइन हिन्द पाकेट बुक्स
कीमत 299
पृष्ठ 202 

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