उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assemmbly Election 2022) के लिए सपा (SP) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) ने गठबंधन किया है. सुभासपा ने पिछला चुनाव बीजेपी के साथ लड़ा था. सपा-सुभासपा ने सीट बंटवारे को लेकर अभी तक कुछ नहीं कहा है. आइए हम यहां जानते हैं कि इन दोनों दलों के गठबंधन का उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा. और सुभासपा से समझौता सपा के लिए कितना फायदेमंद होगा.
पहले बीजेपी और अब समाजवादी पार्टी
साल 2017 में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर के साथ मऊ में एक चुनावी रैली को संबोधित किया था. ठीक उसी तरह जिस तरह अखिलेश ने 27 अक्तूबर को मऊ में सुभासपा की रैली को संबोधित किया. उस समय सुभासपा का बीजेपी से गठबंधन था. सुभासपा ने 8 सीटों पर चुनाव लड़कर 4 सीटें जीती थीं. बीजेपी ने विधानसभा की 403 में से 312 सीटों पर अकेले कब्जा जमाया था. राजभर गाजीपुर की जहूराबाद सीट से जीते थे. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सुभासपा ने एक जिलाधिकारी के तबादले को लेकर बीजेपी से अपना गठबंधन तोड़ लिया.
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दरअसल ओमप्रकाश राजभर जिस राजभर जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी उत्तर प्रदेश में करीब 4 फीसदी की आबादी है. राजभर मुख्य तौर पर पूर्वी उत्तर में हैं. ओमप्रकाश राजभर का प्रभाव चौहान, पाल (गड़ेरिया), प्रजापति (कुम्हार), बढ़ई-लोहार, भर और मल्लाह जैसी जातियों में भी है.
कहां कहां है राजभर का प्रभाव
पूर्वी उत्तर प्रदेश के 18 जिलों की 90 सीटों में से करीब 30 पर राजभरों का वोट अधिक है. इनमें से कुछ पर तो उनका वोट एक लाख तक है. राजभर से समझौते का फायदा बीजेपी को मिला था. साल 2012 में उसे जहां केवल 14 सीटें ही मिली थीं. वहीं 2017 के चुनाव में उसे 72 सीटें इन जिलों में मिलीं. वहीं सपा 52 से गिरकर 9 पर आ गई. सुभासपा का दावा है कि उसका प्रदेश की करीब 150 सीटों पर प्रभाव है. उसका कहना है कि उससे समझौते की वजह से ही इनमें से 146 सीटें एनडीए की झोली में आईं थीं.
सपा से गठबंधन से पहले ओमप्रकाश राजभर ने भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया था. यह छोटे-छोटे दलों का गठबंधन था. इसमें असदउद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम भी शामिल थी. भीम आर्मी के चंद्रशेखर, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के शिवपाल यादव और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से भी राजभर की बातचीत चल रही थी. शिवपाल यादव तो सपा के साथ जा सकते हैं. लेकिन बाकी का कुछ तय नहीं है.
बीजेपी को दिलाया फायदा, सपा का क्या होगा
सुभासपा महासचिव अरुण राजभर का दावा है कि पार्टी का प्रभाव वाराणसी, गाजीपुर, मऊ, बलिया, आजमगढ़, जौनपुर, देवरिया, गोरखपुर, बस्ती, गोण्डा, सिद्धार्थनगर, संत कबीर नगर, महाराजगंज, मिर्जापुर, अयोध्या, श्रावस्ती, बहराइच, कुशीनगर और सुल्तानपुर जिले में है. इनमें से श्रावस्ती, बहराइच, कुशीनगर और सुल्तानपुर को छोड़कर बाकी के वो 18 जिले हैं, जहां 2017 के चुनाव में बीजेपी ने 72 सीटें जीती थीं.
ओमप्रकाश राजभर के साथ सपा ने समझौता किया है. लेकिन उसके पास बसपा छोड़कर आए राम अचल राजभर और विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव राजभर के बेटे कमलाकांत राजभर जैसे राजभर नेता पहले से ही हैं.
वहीं राजभर वोटों को अपने पाले में करने के लिए बीजेपी ने राज्यमंत्री अनिल राजभर को राज्य मंत्री से प्रमोट कर कैबिनेट मंत्री बना दिया है. लेकिन उनका कद ओमप्रकाश राजभर जैसा बन पाया है या नहीं, इसमें अभी संदेह है. अनिल राजभर के अलावा भी बीजेपी के पास दो राजभर नेता और हैं. इनमें से एक राज्यसभा सदस्य हैं और दूसरे 2019 में लोकसभा चुनाव मऊ की घोसी सीट से हार चुके हैं.
यादवों की पार्टी मानी जाने वाली सपा इस बार ओबीसी की अन्य जातियों को भी अपने पाले में करने की कवायद में है. सपा ने कोइरी वोट के लिए केशव देव मौर्य के महान दल से समझौता किया है.
पिछले कुछ चुनाव में बीजेपी ने जातियों में पैठ रखने वाले छोटे दलों से समझौता किया है. इसका उसे फायदा भी हुआ है. इसी तरह अखिलेश यादव अब कांग्रेस जैसे बड़े दलों से समझौते की जगह छोटे दलों को तरजीह दे रहे हैं. पश्चिम में उनका राष्ट्रीय लोकदल से समझौता करीब-करीब फाइनल है. ऐसे समझौते सपा के हित में हैं या नहीं, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे.