उत्तर प्रदेश के चुनावों (UP Assembly Election 2022) में जाति का अहम योगदान होता है. सियासी दल जाति के आधार पर ही अपनी गोटिया सेट करते हैं. इसे सोशल इंजीनीयरिंग कहा जाता है. बसपा (BSP) ने इस सोशल इंजीनियरिंग के बदौलत प्रदेश में अपनी पहली बहुमत वाली सरकार बनाई थी. इस समय सत्तारूढ़ बीजेपी (BJP)ने भी 2017 के चुनाव में जातियों का ही सहारा लिया था. आइए जानते हैं कि अगले साल होने वाले चुनाव के लिए इन दलों की क्या रणनीति है.  


बसपा की सोशल इंजीनियरिंग क्या है?


अगले साल होने वाले चुनाव के लिए बसपा प्रमुख मायावती (Mayawati) एक बार फिर सोशल इंजीनीयरिंग के सहारे हैं. बसपा ने अपने चुनाव अभियान की शुरूआत ही ब्राह्मण सम्मेलन से की. हालांकि आलोचना के बाद इसका नाम बदलकर प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर दिया गया. पिछले साल जुलाई में कानपुर के बिकरू गांव के विकास दुबे नाम के बदमाश की मुठभेड़ में हुई मौत के बाद बसपा ने ब्राह्मणों को राजनीतिक मुद्दा बना दिया. बसपा के पीछे-पीछे अन्य पार्टियां भी इसमें शामिल हो गईं. 


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मायावती ने 2007 के चुनाव में 90 से अधिक टिकट ब्राह्मणों को दिए थे. इनमें से 41 जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. उस समय भी बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलन किए थे. उस समय बसपा ने अपना नारा 'बहुजन हिताय..' से बदलकर 'सर्वजन हिताय...' कर लिया था. उसकी यह तरकीब हिट रही. लेकिन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा अब अन्य सवर्ण जातियों को भी बड़ी संख्या में टिकट देने का प्रयोग कर सकती है.  


बसपा का वोट बैंक थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव के बाद भी उसके साथ बना हुआ है. यूपी के वोटरों में बसपा की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी की है. इसमें सबसे अधिक संख्या दलितों की है. बसपा इसी दलित-ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियों को अपने पाले में करके 2022 में यूपी की सत्ता पाना चाहती है. बसपा की कोशिश भूमिहार और बनिया समुदाय को अपने साथ करने की है. यूपी में राजपूत इस समय योगी आदित्यनाथ के साथ माने जा रहे हैं. 


बीजेपी की रणनीति क्या है?


वहीं इस चुनाव के लिए बीजेपी भी एक बार फिर जाति का सहारा लेगी. सितंबर में हुए मंत्रिमंडल के विस्तार से यह और साफ हो गया. बीजेपी का ध्यान उन जातियों पर अधिक है, जिन पर सपा-बसपा कम ध्यान देती हैं या वो जातियां जो सपा-बसपा को वोट नहीं करती हैं. इसमें पिछड़ी जातियों में गैर यादव और दलितों में गैर जाटव जातियां शामिल हैं. इसके लिए ही बीजेपी ने अपना दल और निषाद पार्टी से समझौता किया है. बीजेपी जाटव को भी अपने साथ मिलाने की कोशिश कर रही है. इसी कोशिश में जाटव जाति की बेबी रानी मौर्य को उत्तराखंड के राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलवाकर बीजेपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है. बीजेपी उन्हें मायावती के विकल्प के रूप में पेश करना चाहती है. 


समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का जोर भी जातियों को जोड़ने में है. इसी को ध्यान में रखते हुए सपा ने पूर्वांचल में ओमप्रकाश राजभर से और पश्चिम में सक्रिय महान दल से समझौता किया है. जाटों को अपने पाले में करने के लिए वह जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल से समझौत की कोशिश में है. रालोद के साथ कांग्रेस भी समझौते की कोशिश कर रही है. 


वहीं उत्तर प्रदेश के एक और बड़े वोट बैंक मुसलमान पर भी सपा-बसपा और कांग्रेस की नजर है. इसमें एआईएमआईएम भी अपनी हिस्सेदारी मांग रही है. यूपी में मुसलमान सपा-बसपा को वोट करते हैं. एमआईएम पिछला चुनाव भी लड़ी थी. लेकिन मुसलमानों ने उसे वोट नहीं किया. मुसलमान एक समय कांग्रेस को वोट करते थे. लेकिन 6 दिसंबर 1992 के अयोध्या कांड के बाद वो उससे दूर हो गए. कांग्रेस एक बार फिर मुसलमानों को अपनी ओर करने की कोशिश कर रही है. अब यह नतीजे ही बताएंगे कि सोशल इंजीनियरिंग में कौन सी पार्टी पास होती है और कौन फेल.


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