उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों कहा था कि 2022 का चुनाव 80 फीसदी बनाम 20 फीसदी का होगा. उन्होंने बीजेपी के फिर सरकार बनाने का दावा किया था. विपक्षी दलों ने उनके इस बयान को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने वाला बताया. विपक्ष के इन आरोपों में कुछ सच्चाई भी है. दरअसल बीजेपी हिंदू वोटों को गोलबंदी चाहती है. बीजेपी की इस कोशिश को जायज ठहराने के लिए मुस्लिम एकजुटता का उदाहरण दिया जाता है. लेकिन क्या मुस्लिमों की एकजुटता तथ्यात्मक रूप से सत्य है. इसका उत्तर पिछले कुछ चुनावों में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में छिपा है. 


विधानसभा में सबसे अधिक मुसलमान कब पहुंचे


उत्तर प्रदेश की विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटता-बढ़ता रहा है. समाजवादी विचारधारा वाले दलों का 1970 और 1980 के दशक में विस्तार और कांग्रेस के कमजोर होने के बाद विधानसभा में आजादी के बाद पहली बार मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ा. यह 1985 में 6.6 फीसदी से बढ़कर 12 फीसदी हो गया था. बीजेपी का विस्तार भी 1980 के दशक में ही हुआ. इसका परिणाम यह हुआ कि 1991 में विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 5.5 फीसदी रह गया. इस दौरान मुसलमानों को टिकट देने में भी गिरावट देखी गई. 


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मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में सुधार का दूसरा दौर 1991 के बाद शुरू हुआ. यह 2012 तक चला. साल 2012 में 17 फीसदी मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे. आजादी के बाद यह पहली बार था कि मुस्लिम करीब अपनी आबादी के बराबर की संख्या में विधानसभा में पहुंचे थे. लेकिन 2017 में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत ने मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को फिर 1991 के स्तर पर पहुंचा दिया. साल 2017 के चुनाव में केवल 23 मुसलमान विधायक चुने गए, जबकि 2012 में 68 मुसलमान विधायक चुने गए थे. 


मुसलमानों को सबसे अधिक प्रतिनिधित्व किस पार्टी ने दिया


उत्तर प्रदेश में अभी बीजेपी जितनी ताकतवर है, उसने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के राजनीतिक भाग्य को कमजोर किया है. साल 1996 और 2016 के बीच इन दोनों दलों की विधानसभा में हिस्सेदारी करीब 63 फीसदी की थी, लेकिन यह 2017 में घटकर करीब 17 फीसदी रह गई है. यहां देखने वाली बात यह भी है कि बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय दलों के प्रभुत्व के समय मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम ही रहा. आंकड़े बताते हैं कि सपा और बसपा ने मुसलमानों को सबसे अधिक स्थान दिया है. बीजेपी ने 1991 से लेकर 2016 तक केवल 8 मुसलमानों को टिकट दिया. वहीं 2017 में उसने एक भी मुसलमान को उम्मीदवार नहीं बनाया. उत्तर प्रदेश में जब सपा-बसपा अच्छा प्रदर्शन करती हैं तो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ता है. वहीं बीजेपी का प्रदर्शन सुधरते ही मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम हो जाता है.  


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बसपा ने 2007 में सरकार बनाई थी. उस साल सबसे अधिक मुस्लिम विधायक बसपा से चुने गए थे, ऐसा तब हुआ था जब बसपा ने 2002 की तुलना में कम टिकट मुसलमानों को दिए थे. बसपा ने 2002 में 83 जबकि 2007 में केवल 62 मुसलमानों को टिकट दिया था. यही हाल सपा में भी रहा. सपा ने 2012 में प्रदेश में सरकार बनाई. उस साल उसके टिकट पर 43 उम्मीदवार विधायक चुने गए. जबकि 2007 में सपा से केवल 21 मुस्लिम विधायक चुने गए थे. 


बीजेपी के मजबूत होने से कमजोर हुआ मुसलमानों का प्रतिनिधित्व


उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 1990 के दशक में बढना शुरू हुआ, जब सपा-बसपा जैसे क्षेत्रिय दलों ने उन्हें बड़ी संख्या में टिकट देना शुरू किया. साल 1991 के चुनाव में 23 मुस्लिम विधायक चुने गए थे. वहीं 1993 में 25, 1996 में 36, 2002 में 39, 2007 में 51, 2012 में 62 और 2007 में 23 मुस्लिम विधायक चुने गए. 


अब अगर उम्मीदवारी पर गौर करें तो 1991 में 197 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे, वहीं 1993 में 128, 1996 में 118, 2002 में 199, 2007 में 179, 2012 में 230 और 2017 में 180 मुस्लिम चुनाव मैदान में थे.


साल 1991 के चुनाव में बीजेपी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए अकेले के दम पर 425 में से 221 सीटों पर जीत दर्ज की थी. वहीं 2017 में बीजेपी ने अपनी प्रदर्शन में भारी सुधार करते हुए 403 में से 312 सीटों पर जीत दर्ज की थी.