उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव (UP Assembly Election 2022) अगले साल होने हैं. उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों ने अबतक सबसे अधिक सक्रियता पूर्वी यूपी में ही दिखाई है. पश्चिम में वो कम सक्रिय हैं. पश्चिम यूपी का राजनीतिक माहौल किसान आंदोलन (Farmer Protest) ने बदल दिया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (CM Yogi Adityanath) ने कैराना पहुंच कर चुनाव में बीजेपी (BJP) का एजेंडा सेट करने की कोशिश की. बीजेपी ने 2017 के चुनाव में कैराना से हिंदुओं के पलायन को मुद्दा बनाया था. इस बार वहां किसान आंदोलन मुद्दा नजर आ रहा है. आइए नजर डालते हैं पश्चिम उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों पर.


बीजेपी को 2017 के चुनाव में मिली थी बुलंद जीत
  
बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम यूपी की 110 में से 88 सीटें जीत ली थीं. उसे 2012 के चुनाव में 38 सीटें ही मिली थीं. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 2014 की तुलना में 5 सीटों का घाटा उठाना पड़ा है. लेकिन इसकी वजह किसान आंदोलन नहीं बल्कि सपा-बसपा और रालोद का गठजोड़ था.  


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पिछले साल नवंबर में किसान आंदोलन शुरू होने के बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट एकजुट हुए हैं. वहीं मुजफ्फरनगर में 2013 में हुए दंगों के बाद जाट-मुसलमान एकता में दरार आई थी. इसे किसान आंदोलन ने भरने का काम किया है. 


राष्ट्रीय लोकदल को पश्चिम उत्तर प्रदेश की बड़ी पार्टी माना जाता था. बीजेपी, कांग्रेस, सपा-बसपा उसी से समझौता करते थे. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद आरएलडी की हालत खराब हो गई. उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष तक चुनाव हार गए. किसान आंदोलन से लामबंद हुए जाट समुदाय को लग रहा है कि रालोद को हराकर उन्होंने गलती की है. अब जाट और मुसलमान रालोद के साथ हो रहे हैं. इसने रालोद को पश्चिम में फिर इंपार्टेंट बना दिया है. 


पश्चिम यूपी में आरएलडी की उपयोगिता 


जयंत को अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस और सपा में होड़ लगी हुई है. हालांकि जयंत ने कहा है कि सपा के साथ उनकी बातचीत अंतिम चरण में है. दोनों दल सीट बंटवारे पर अभी सहमत नहीं हो पाए हैं. यह देख कांग्रेस ने अभी भी उम्मीद नहीं खोई है. वहीं आकंड़े बताते हैं कि रालोद को सबसे अधिक फायदा बीजेपी से गठबंधन में मिला है. इसकी संभावना इस बार नगण्य है.


पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुसलमान और जाट की संख्या अधिक है. इनके भाईचारे को 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे ने कमजोर किया. उस समय प्रदेश में सपा की सरकार थी. दंगे की वजह से मुसलमान सपा से नाराज बताए जा रहे हैं. इसका असर 2017 के चुनाव में नजर आया था. सपा का कोर वोट बैंक यादव की आबादी पश्चिम में कम है. यादव से अधिक संख्या में दलित पश्चिम में हैं, जिन्हें बसपा का वोट बैंक माना जाता है. इस बार बसपा ने किसी के साथ समझौता नहीं किया है. लेकिन उसने सभी वर्गों को टिकट देने की घोषणा की है. ब्राह्मण-मुसलमानों पर उसका विशेष फोकस है, दलितों का एक बड़ा तबका पहले से ही उसके साथ है. इसका फायदा उसे पश्चिम यूपी में मिल सकता है.  


कांग्रेस का किसी दल से समझौता नहीं हुआ है. पश्चिम में कांग्रेस के बड़े नेता इमरान मसूद ने सपा से समझौते की वकालत की थी. लेकिन सपा ने ही बड़े दलों के साथ चुनाव न लड़ने की रणनीति बना ली. कांग्रेस के साथ उसका पिछला गठबंधन फ्लाप हो गया था. किसान आंदोलन की शुरुआत के साथ ही कांग्रेस ने पश्चिम में अपनी सक्रियता बढ़ा दी थी. उसने पश्चिम में कई किसान महापंचायतें आयोजित की थीं. जिन्हें प्रियंका गांधी ने संबोधित किया था. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस किसान आंदोलन का कितना फायदा पश्चिम में उठा पाती है. 


बीजेपी क्या फिर अपनाएगी धर्म का रास्ता


पिछले चुनाव में पश्चिम में परचम लहराने वाली बीजेपी एक बार फिर धर्म के रास्ते ही लखनऊ की गद्दी पाने की कोशिश में है. इसे ध्यान में रखकर ही योगी आदित्यनाथ ने कैराना का दौरा किया. दरअसल बीजेपी इसके जरिए किसान आंदोलन के प्रभाव को कमतर बताना भी चाहती है. किसान आंदोलन के प्रभाव का असर पंचायत चुनाव में नजर आया था. बीजेपी को इसमें तगड़ी हार हुई थी. इसे देखते हुए बीजेपी पश्चिम में धर्म और जाति की राजनीति का सहारा ले सकती है. वहीं कुछ जानकारों का कहना है कि बीजेपी को इस बार पश्चिम में धर्म की राजनीति का फायदा नहीं मिलेगा. उसने यह फायदा 2017 में ही उठा लिया था.
 


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