अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) करीब आ गया है. राजनीतिक दल चुनाव की रणनीति बना रहे हैं. गठबंधनों को सजाया-संवारा जा रहा है. उत्तर प्रदेश में इस बार का मुकाबला बीजेपी (BJP), समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party), बहुजन समाज पार्टी (Bahujan samaj party BSP) और कांग्रेस (Congress) के बीच होगा. साल 2017 के चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उसने अकेले 312 सीटें जीती थीं. उसकी इस जीत में टिकट बंटवारे में की गई सोशल इंजीनियरिंग का हाथ बताया गया था. इसी सोशल इंजीनियरिंग के सहारे बसपा ने 2007 में सत्ता पाई थी. आइए जानते हैं कि उत्तर प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी समाजवादी पार्टी सोशल इंजीनियरिंग की दिशा में क्या कर रही है. 


कौन है 'बाबा साहब वाहिनी' का अध्यक्ष?


समाजवादी पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग करते हुए पहली बार अपनी पार्टी में दलित फ्रंट बनाया है. इसे नाम दिया गया है, 'समाजवादी बाबा साहब अंबेडकर वाहिनी'. इसकी कमान सौंपी गई है बसपा छोड़कर सपा में आए बलिया के मिठाई लाल भारती को.


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उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक करीब 23 फीसदी है. लेकिन इसमें से चमार और जाटव जैसी जातियां अभी भी बसपा के साथ मजबूती से खड़ी हैं. इसलिए करीब 20 फीसदी वोट अभी भी बसपा को मिलते हैं. लेकिन दूसरी दलित जातियां बसपा से दूरी हो रही हैं. इन्हीं वोटों पर अब सपा की नजर है. वो 'बाबा साहेब आंबेडकर वाहिनी' से इन्हीं वोटों को हासिल करने की कोशिश कर रही है. इसलिए वो बड़े पैमाने पर दलित नेताओं को अपने पाले में कर रही है. 


सपा ने पिछले दिनों अपनी 72 सदस्यीय नई प्रदेश कार्यकारिणी घोषित की थी. सपा ने इसमें सभी वर्गों का विशेष तौर पर ध्यान रखा है. सपा को यादवों की पार्टी माना जाता है. लेकिन सपा की नई प्रदेश कार्यकारिणी में इस बार यादवों को अधिक जगह नहीं मिली है. यही हाल मुसलमानों का है. सपा ने अपनी नई कार्यकारिणी में समाज के वार्गों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है. 


दरअसल चुनाव को लेकर बसपा प्रमुख मायावती के रुख को देखते हुए सपा इस तरह के कदम उठा रही है. उसे लगता है कि समाजवादी बाबा साहेब अंबेडकर वाहिनी दलितों में पैठ बनाएगा. ऐसी खबरें भी हैं कि दूसरी जातियों को प्रतिनिधित्व देने के लिए अखिलेश यादव अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बदलाव कर सकते हैं. इससे पहले सपा का जोर मुसलमानों और यादवों को अपने पाले में रखने पर रहता था. 


क्या सपा पर विश्वास करेंगे दलित? 


सपा की इन कोशिशों को देखते हुए सवाल यह उठता है कि क्या दलित सपा पर विश्वास करेंगे. अपनी स्थापना के बाद से सपा ने दलितों के लिए कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है. यहां तक की 2012 में चुनाव जीतने के बाद कई सपा नेताओं ने मायावती सरकार द्वारा लखनऊ में बनवाए गए स्मारकों पर बुलडोजर चलवाने की बात भी कही थी. इससे दलितों में सपा को लेकर काफी नाराजगी थी. 


दलित जातियों के आर्थिक-सामाजिक विकास में आरक्षण का बहुत बड़ा हाथ है. लेकिन लोकसभा में जब प्रमोशन में आरक्षण से जुड़ा बिल 2012 में यूपीए सरकार ने पेश किया था तो सपा सांसद यशवीर सिंह ने केंद्रीय कार्मिक राज्यमंत्री नारायणसामी के हाथ से बिल की प्रति छीनकर फाड़ दिया था. वहीं प्रदेश में जब 2012 से 2017 तक सपा की सरकार थी तो कोर्ट के आदेश पर कई दलित कर्मचारियों को डिमोट किया गया था. लेकिन प्रदेश सरकार ने अदालत के फैसले के खिलाफ बड़ी अदालत का रुख नहीं किया. उत्तर प्रदेश में जब समाजवादी पार्टी की सरकार थी तो अखिलेश यादव ने 2014 में एससी-एसटी कमीशन का अध्यक्ष पिछड़ी जाति से आने वाले आजमगढ़ के रामदुलार राजभर को बना दिया था. 


साल 2017 के चुनाव में वोटरों ने सपा को नकार दिया था. उस साल सपा को केवल 47 सीटें ही मिली थीं. बसपा को केवल 19 सीटें ही मिली थीं. 


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