उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने विधानसभा की 403 में से 255 सीटें जीत ली हैं. उसके सहयोगियों अपना दल (एस) और निषाद पार्टी को 18 सीटें मिली हैं. वहीं सपा को केवल 111 और उसके सहयोगियों सुभासपा और रालोद को 14 सीटें मिली हैं. बीजेपी लगातार दूसरी बार  प्रदेश में अपनी सरकार बनाने जा रही है. ऐसा प्रदेश में 37 साल बाद होगा कि कोई पार्टी लगातार दूसरी बार सरकार बनाएगी.अखिलेश यादव एक बार फिर यूपी की सत्ता पर काबिज होने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन मतदाताओं ने उनकी कोशिशों को परवान नहीं चढ़ने दिया. आइए जानते हैं कि सपा और उसके सहयोगियों के हार की वजह क्या रही.


चुनाव जीतने के लिए अखिलेश यादव की कोशिशें?


किसान आंदोलन से पैदा हुए गुस्से को चुनाव में भुनाने के लिए सपा ने रालोद से हाथ मिलाया था.अखिलेश यादव ने 'नई हवा है, नई सपा है' का नारा देकर पार्टी छवि सुधारने की कोशिश की. उन्होंने बेरोजगारी, महंगाई और आवारा पशुओं की समस्या जैसे मुद्दे उठाए. लैपटॉप और 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया. बरोजगार युवाओं को नौकरी देने का वादा किया और कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाल करने का आश्वासन दिया. इसके बाद भी जनता ने अखिलेश यादव और उनकी पार्टी पर भरोसा नहीं किया. सपा के हित में यह बात जरूर है कि 2017 की तुलना में उसे दो गुने से अधिक सीटें मिली हैं.


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इस चुनाव में अखिलेश यादव ने 'नई हवा है, नई सपा है' का नारा जमकर लगाया. लेकिन उतनी ही ताकत से बीजेपी उन्हें गुंडे, माफियाओं और आतंकवादियों की समर्थक पार्टी बताती रही. जेल में बंद कुछ नेताओं,दागी और बाहुबलियों को टिकट देकर सपा ने बीजेपी के दावों की दस्दीक कर दी. फ्री बिजली,शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक बनाने, बीएड, बीपीएड, बीटीसी करने वाले युवाओं को नौकरी देने जैसी घोषणाएं भी फेल हो गईं.


उम्मीदवारों का चयन और लोगों का भ्रम


सपा का रालोद से गठबंधन और उम्मीदवारों के चयन और अपने उम्मीदवारों को रालोद के टिकट पर चुनाव लड़ाने से भी भ्रम पैदा हुआ. कहा जा रहा है कि रालोद के वोट बैंक जाटों ने रालोद को केवल उन्हीं सीटों पर वोट दिया,जहां उसके अपने चुनाव चिह्न् पर उम्मीदवार थे. जाटों ने रालोद के टिकट पर चुनाव लड़ रहे सपा नेताओं को वोट नहीं किया. हालांकि इसी गठबंधन ने मुजफ्फरनगर में बीजेपी को पटखनी दे दी. वहां सपा-रालोद गठबंधन ने 6 में से 4 सीटों पर जीत दर्ज की है. वहीं पड़ोस के कैराना में भी बीजेपी को हार मिली. कैराना का महत्व इस बात से समझ सकते हैं कि अमित शाह ने अपने प्रचार अभियान की शुरुआत कैराना से की. योगी आदित्यनाथ ने भी कैराना का दौरा किया. पुलिस ने सपा उम्मीदवार नाहिद हसन को पर्चा दाखिल करते हुए गिरफ्तार कर लिया. इतना सब करने के बाद भी बीजेपी कैराना नहीं जीत पाई.  


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इससे पहले सपा ने 2017 के चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन किया था. तब अखिलेश और राहुल की जोड़ी की खूब चर्चा हुई थी. लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो दोनों 'लड़के' दिन में तारे देख रहे थे. इसके बाद इस बार सपा ने कांग्रेस से गठबंधन की सोची तक नहीं. रालोद ने भी सपा के साथ जाना बेहतर समझा था. हालांकि कांग्रेस ने उसे अपने पाले में करने की भरपूर कोशिश की थी. जनता ने अखिलेश और रालोद के जयंत चौधरी तक को नकार दिया. किसान आंदोलन से पैदा हुआ नाराजगी बीजेपी के खिलाफ वोट बैंक में तब्दील नहीं हो पाई.


अखिलेश यादव का चुनाव प्रचार


अखिलेश यादव ने चुनाव प्रचार में योगी आदित्यनाथ को बुलडोजर बाबा तक का खिताब दे दिया. इसे भी बीजेपी ने अपने फेवर में कर लिया. योगी आदित्यनाथ ने माफियों पर की गई कार्रवाई में बुलडोजर का महत्व बताया. वो लोगों को यह बताने में सफल रहे कि अगर सपा सरकार में आई तो माफिया फिर हावी हो जाएंगे. हालत यह हो गई कि पांचवें चरण तक आते-आते योगी आदित्यनाथ की सभाओं में बुलडोजर तक रखे जाने लगे. 


चुनवा प्रचार की शुरूआत से पहले ही अखिलेश यादव ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना पर बयान दे दिया. उन्होंने सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं के साथ जिन्ना का नाम ले लिया. बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाकर सपा और अखिलेश यादव पर हमला बोल दिया. योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश को जिन्ना प्रेमी बताया. वहीं अहमदाबाद बम धमाके  के दोषियों में से 5 आजमगढ़ के निकले. इनमें से एक के पिता सपा से जुड़े हुए थे. बीजेपी ने इसे भी मुद्दा बनाकर अखिलेश को आतंकवादी समर्थक बताया.