Farmers Protest: गाजीपुर बार्डर पर किसानों ने फिर से जुटना शुरु कर दिया है. ऐसी ही खबरें टिकरी और सिंघु बार्डर से भी आ रही हैं. यानि 26 जनवरी को लाल किले की प्राचीर से झंड़ा फहराने की गलती करने वाले किसान नये सिरे से संगठित हो रहे हैं. बड़ा सवाल खड़ा होता है कि अगर किसान लंबे समय तक आंदोलन करते हैं तो यूपी में खासतौर से पश्चमी यूपी में बीजेपी को क्या नुकसान हो सकता है. यूपी में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. पिछले चुनावों में बीजेपी ने कांग्रेस सपा और बसपा के साथ साथ आरएलडी की मौजूदगी के बावजूद अच्छी सफलता हासिल की थी. इसके बाद लोकसभा चुनावों में भी बीजेपी को यहां की मुस्लिम बहुल सीटों पर भी विजय मिली थी. एक सर्वे के अनुसार तो बीजेपी का स्ट्राइक रेट यहां साठ फीसद से ज्यादा रहा था. यह कामयाबी क्या किसान आंदोलन के चलते फिर से दोहराई जा सकेगी?
जानकारों का कहना है कि फिलहाल किसान गुस्से में हैं. यहां भी ज्यादा बड़ी संख्या गन्ना उगाने वाले किसानों की है. गन्ना एमएसपी पर खरीदा नहीं जाता है. यहां हर साल केन्द्र सरकार गन्ने का एफआरपी रेट घोषित करती है. इसे उचित और परामर्शदात्री मूल्य कहा जाता है. इस एफआरपी पर राज्य सरकार एमएपी रेट तय करती है जो एफआरपी से ज्यादा ही होता है. पिछले छह सालों से केन्द्र की मोदी सरकार हो या साढ़े तीन सालों से योगी सरकार, दोनों ने ही हर साल एफआरपी और एसएपी में इजाफा ही किया है. यहां बीजेपी ने गन्ना किसानों को खुश रखने के लिए पूरानी सरकारों की तरफ से तय व्यवस्था पर ही चलना ज्यादा पसंद किया है. ऐसे में अभी आंदोलन कर रहे किसान जब वोट देने जाएंगे तो क्या करेंगे, यह बात आज निश्चित तौर पर नहीं कही जा सकती.
सरकार हर साल बढ़ा देती है गन्ने का दाम
गन्ने की कीमत समय पर किसानों को पहले भी नहीं मिलती थी और आज भी नहीं मिलती है. पिछली बार चुनाव से पहले बीजेपी ने किसानों से वायदा किया था कि गन्ने का बकाया पैसा पन्द्रह दिन में मिले, इसके लिए चरणसिंह के नाम पर योजना शुरु की जाएगी. ऐसा किया भी गया लेकिन शायद ही कोई किसान हो जिसे पन्द्रह दिन में भुगतान मिल गया हो. अलबत्ता किसानों का पैसा चीनी मिलों में डूबता नहीं है. देर सबेर वापस आ ही जाता है. इसके अलावा हर साल गन्ने का दाम सरकार बढ़ा ही देती है. इस हिसाब से देखा जाए तो वोट देते समय किसान की नजर में वही दल रहता है जो सत्ता में रहते हुए उनका भला कर रहा हो. अभी तक तो बीजेपी यहां खऱी उतरती रही है. मुज्जफरपुर के दंगों से जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ उसका लाभ भी बीजेपी को मिलता रहा है. ऐसा आगे भी होता रहेगा ऐसी बात जानकार बता रहे हैं.
तो कुल मिलाकर किसानों की नाराजगी इस समय तो केन्द्र सरकार से उतनी नहीं है जितनी कि योगी सरकार से है. किसानों का कहना है कि जिस तरीक से लाइट काटी गयी, पानी की आपूर्ति रोकी गयी, भारी संख्या में पुलिस बल लगाया गया और किसान संगठनों में फूट डालने की कोशिश की गयी, वह सियासी रुप से योगी सरकार पर भारी पड़ सकता है. आखिर हरियाणा में भी बीजेपी की सरकार है जिसने धरना उठाने के लिए इतना उतावला पन नहीं दिखाया. राजस्थान में कांग्रेस सरकार है जिसने शहाजहांपुर बार्डर पर एक पुलिस वाला तक नहीं भेजा. खट्टर सरकार ने भी संयम से काम लिया. कुछ जगह जहां धरना स्थल पर कम लोग रहे गये थे, वहां लंगर बंद करवा दिए या टोल टैक्स की वसूली दोबारा शुरु करवा दी गयी लेकिन जबरदस्ती कुछ नहीं किया गया.या यूं कहा जाए कि किसानों को जबरन खदेड़ने की कोशिश नहीं हुई.
योगी से अलग हैं खट्टर सरकार की मुश्किलें
इसकी एक वजह यह भी है कि खट्टर सरकार दुष्यंत चौटाला के दस विधायकों के बल पर टिकी है जो किसानों की मांग का समर्थन क र रहे हैं. ऐसी कोई सियासी मजबूरी योगी सरकार के पास नहीं है लेकिन किसान एक बड़ा वोट बैंक है, अगर पश्चिमी यूपी का किसान गाजीपुर बार्डर पर है तो इसका यह मतलब हरगिज नहीं निकाला जाना चाहिए कि पूर्वी यूपी का किसान उन किसानों के साथ नहीं है.
फिर सवाल उठता है कि आखिर यूपी सरकार को इतनी जल्दबाजी क्यों थी? क्या नौकरशाही ने ऐसी कोई राय दी कि लोहा गर्म है चोट कर दो. या फिर योगी सरकार को लगता है कि यूपी के इस भाग में मायावती कुछ कमजोर पड़ रही है. अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी लगातार दो दो लोकसभा चुनाव हारने के बाद चुक गये हैं, मुस्लिम बहु इलाकों में मुस्लिम वोट बंटता रहा है और आगे भी बंटता रहेगा. बदले में गैर मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण होता रहा है और होता रहेगा. ऐसा तो नहीं कि योगी सरकार को लग रहा हो कि 2022 में विधानसभा चुनाव के समय राम मंदिर का निर्माण काफी हद तक पूरा हो चुका होगा और तब रामजी के नाम पर ही वोट मिल जाएगा. सियासत में नेता और दल अपने अपने हिसाब से गणित बनाने के लिए स्वतंत्र हैं. वैसे भी किसान आंदोलन क्या रुप लेता है, सरकार से क्या बात बन पाती है, क्या किसान संगठनों में आगे भी फूट पड़ती है? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब मिलने बाकी है.
किसान वोट देने जाता है तो जाट, मुस्लिम, ब्रहमण, दलित, यादव हो जाता है
फिलहाल चुनाव अभी भी बहुत दूर है. लिहाजा अभी यह कह पाना बहुत जल्दबाजी होगी कि ऊंट किस करवट बैठेगा. सबसे बड़ी बात है कि भले ही अभी किसान एक ही शिविर में रह रहा हो,एक ही लंगर का खाना खा रहा हो, लेकिन किसान अपने आप में एक वोट बैंक नहीं है. जब किसान वोट देने जाता है तो जाट, मुस्लिम, ब्रहमण, दलित, यादव हो जाता है. जब तक ऐसा होता रहेगा और जब तक ऐसे बिखराव का फायदा राजनीतिक दल उठाते रहेंगे, तब तक किसानों को यूं ही बार बार आंदोलन ही करना पड़ेगा. चाहे केन्द्र में बीजेपी हो या कांग्रेस या फिर मिला जुला मोर्चा. यही बात यूपी राज्य के लिए भी कही जा सकती है. सपा हो या बसपा या कांग्रेस हो या बीजेपी, कोई भी यकीनी तौर पर नहीं कह सकता कि किसान उसका वोट बैंक हैं.
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