Azamgarh and Rampur By-Elections: लोकसभा उपचुनाव में सभी दलों के सामने बराबर मौका था जनता के बीच जाकर अपनी बात कहने का. अगर अंतर था तो सिर्फ नेतृत्व और स्ट्रेटजी का. चुनावी नतीजों ने जहां एक तरफ फिर से बीजेपी के कुशल नेतृत्व पर मोहर लगाई तो वहीं दूसरी ओर अन्य दलों की नेतृत्व क्षमता पर सवाल भी खड़े करे हैं.


एक तरफ सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव जो यह मानकर बैठे थे कि रामपुर और आजमगढ़ उनके मजबूत गढ़ हैं. वे भले ही यहां प्रचार के लिए ना जाएं लेकिन इस सीट को कोई नहीं छीन सकता. शायद यही वजह रही कि वह इन दोनों सीटों पर एक दिन भी प्रचार के लिए नहीं गए. हालांकि पार्टी के अंदर लोग जरूर चाहते थे कि अखिलेश यादव खुद मोर्चा संभाले. शायद इसलिए की ये लोग जमीनी हकीकत से वाकिफ थे. लेकिन अखिलेश तो अति आत्म्विश्वास से भरे थे जो उन्हें ले डूबा. अगर विधानसभा चुनाव के नतीजों से ही कुछ सीख लिया होता तो हालात अलग होते शायद.


मैदान में डटे रहे सीएम योगी


वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी जो यह जानती थी की रामपुर और आजमगढ़ दो ऐसे किले हैं जिसमें सेंधमारी करना आसान नहीं. लेकिन इसके बावजूद पूरे दमखम के साथ चुनाव को लड़ा और जीत हासिल की. खुद सीएम योगी मैदान में डटे रहे, पूरे मंत्रिमंडल को मैदान में उतार दिया. सूत्रों की माने तो सीएम योगी ने अपने कुछ लोगों से यह तक कहा कि अधूरे मन से लड़ा जाने वाला युद्ध जीता नहीं जा सकता और आखिरकार इस युद्ध को जीत कर दिखाया.


विपक्ष पर उठे सवाल


फिलहाल जो हालात है ऐसा लगता है कि विपक्ष ने खुद को चार दिवारी में कैद कर लिया है. जमीन पर क्या चल रहा है वह देख नहीं पा रहा या फिर यह कहे के देखना ही नहीं चाहता. बीजेपी भी यही कहती है की सपा अध्यक्ष सिर्फ ट्वीट करना जानते हैं, जनता के बीच जाकर काम करना नहीं. बहरहाल ऐसा लगता है कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती यह मानकर बैठे हैं कि वह अगर बाहर नहीं निकलेंगे तो भी बीजेपी को नापसंद करने वाले अपने आप उनके पास आ जाएगा. लेकिन हालात और हकीकत इससे कहीं अलग है. दोनों ही बदलते हालात से रूबरू नहीं हो पा रहे. ताज्जुब तो ये है की एक के बाद एक प्रयोग और अपनी करारी शिकस्त और बीजेपी के बढ़ते जनाधार को भी नहीं समझ पा रहे.


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