उत्तर प्रदेश में सियासी सरगर्मी तेज है. राजनीतिक दलों के बीच नहीं, सत्ताधारी दल के अंदर ही दिल्ली से लेकर लखनऊ तक मची हलचल ने सरगर्मियों को उफान पर पहुंचा दिया है. संघ परिवार और बीजेपी आलाकमान इस अंदरूनी उफान को अपने संगठन की चहारदीवारी से बाहर नहीं आने देना चाहता, लेकिन क़यासों का झाग प्रदेश की राजधानी से राष्ट्रीय राजधानी तक छलक रहा है.


राष्ट्रीय फलक पर धूमकेतु की तरह पीएम नरेंद्र मोदी की तरह छा जाने के बाद पहली बार किसी बीजेपी शासित राज्य में चुनाव से पहले कील-कांटे दुरुस्त करने के लिए बीजेपी समेत पूरे संघ परिवार को जुटना पड़ा है. प्रदेश में नेतृत्व या हनक को लेकर तो रस्साकशी पूरी शिद्दत से चल रही है, लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण बात है कि 2014 के बाद पहली बार किसी राज्य में सरकार-संगठन में समन्वय और भागीदारी का मुद्दा उठ रहा है. साथ ही मंत्रियों से लेकर संगठन तक से उनके कामकाज का ब्यौरा भी लिया जा रहा है, जिससे राज्य के मुख्यमंत्री भी अलग नहीं.


बीजेपी के लिए केंद्र में आने का रास्ता हमेशा उत्तर प्रदेश से होकर ही आता रहा है. ऐसे में संघ परिवार और बीजेपी का मंथन अस्वाभाविक नहीं. मगर उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले दिल्ली में हुई संघ-बीजेपी की हाईप्रोफ़ाइल बैठक के बाद से जिस तरह लखनऊ सरगर्म है और जो तस्वीरें सामने आ रही हैं, उनसे अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि बीजेपी नेतृत्व इस राज्य को लेकर कितना चिंतित है. इस पूरी उठापठक और क़वायद से राज की बात आपको बताऊं, उससे पहले आपके चिंतन के लिए कुछ सवाल. कुनबे में सब कुछ ठीक है. हम सब साथ-साथ हैं. अफ़वाहें विरोधियों की साज़िश है. सियासत में अगर इस तरह से राजनीतिक दल के बड़े लोगों को बयान देना पड़े तो इसका मतलब क्या है? अब कोई चिल्लाकर अपने रिश्तों के सही होने का सुबूत तो तभी देता है जब सवाल उठ रहे हों.


आख़िर उत्तर प्रदेश बीजेपी में क्या होगा? क्या बदलाव होंगे? बदलाव होंगे तो किस हद तक होंगे? सबसे बड़ा सवाल चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा? इनका जवाब दें इससे पहले उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या का बयान ध्यान में रखना चाहिए. मौर्या दावा कर रहे हैं कि हम प्रदेश अध्यक्ष के नेतृत्व में 300 से ज्यादा सीटें जीतेंगे.


मौर्या ने ये बयान तब दिया जबकि राष्ट्रीय संगठन मंत्री ने मुख्यमंत्री समेत प्रदेश के सभी मंत्रियों, विधायकों और पदाधिकारियों के साथ चर्चा की थी. मौर्या उनसे मिलकर निकले थे तो पत्रकारों के सवाल पर ये बयान दिया. सवाल ये है कि सीएम के होते हुए प्रदेश अध्यक्ष के नेतृत्व में चुनाव क्यों लड़ा जायेगा. वैसे मौर्य के पर लगातार कतरने में योगी आदित्यनाथ ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. चूंकि, 2017 का विधानसभा हुआ था तब मौर्या ही पार्टी अध्यक्ष थे और योगी सिर्फ सांसद थे. मौर्य को मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार भी माना जा रहा था, लेकिन तब आलाकमान ने योगी पर भरोसा जताया था.


एके शर्मा की भूमिका को लेकर टकराव


मौर्य और योगी के मतभेदों को छोड़ दें तो भी पीएम मोदी के ख़ास नौकरशाह से एमएलसी बने एके शर्मा की भूमिका को लेकर भी प्रदेश में टकराव साफ देखने को मिला था. पहले तो सीएम कार्यालय से उन्हें समय तक मिलने में इंतज़ार कराया गया. अभी प्रदेश मंत्रिमंडल में भी उनकी भूमिका को लेकर ख़ासा गतिरोध रहा है. हालांकि, उनका कैबिनेट में आना तय है, लेकिन उनके विभाग को लेकर भी सवाल बने हुए हैं और टसल भी. शर्मा को ज़रूरत से ज्यादा तवज्जो दिए जाने पर भी योगी ख़ेमे के लोग ख़ासे उद्धेलित दिखाई देते रहे हैं. सीएमओ और बीजेपी संगठन में कभी नज़दीकी दिखना तो दूर हमेशा दूरी ही दिखाई देती रही. यहां तक कि मंत्री और विधायक भी सीएम कार्यालय के नज़दीकियों के चक्रव्यूह को भेदकर सहज संवाद में असफल रहे. यह मुद्दा भी लगातार उठता ही रहा.


राज की बात भी यही है कि जब केंद्र ने जायज़ा लिया तो ये दूरियां भी साफ़तौर पर उभरकर आ गईं. बीएल संतोष ने जो विधायकों और मंत्रियों से बात की, उनमें क़रीब 60 फ़ीसद ने विधानसभा चुनाव किसी और चेहरे के नेतृत्व में लड़ने की वकालत की. हालांकि, योगी को हटाने से बीजेपी की शर्तिया हार का मत भी 35 फ़ीसद का था. मंत्री भी बातचीत में बहुत संतुष्ट नहीं थे. उनसे पूछा गया था कि बीजेपी के घोषणापत्र के वादों को उनके विभाग ने कितना पूरा किया. इस सवाल के जवाब में ज्यादातर मंत्रियों ने अपने दर्द का इज़हार किया. उन्होंने नौकरशाही के निरंकुश होने और सहयोग न करने की बात कही. साथ ही कहा कि सीएमओ की तरफ से मंत्रियों के बजाय अधिकारियों का साथ दिया गया. जाहिर है कि ब्यूरोक्रेसी की निरंकुशता पर भी निशाना सीएम की तरफ ही था.


यहां राज की बात बताना ज़रूरी है कि यूपी में इस तरह का संवाद पहले शुरू हुआ है, लेकिन जहां पार्टी सत्ता में है यानी उत्तराखंड और हरियाणा में भी यह प्रक्रिया अपनाई जाएगी. खैर बीएल संतोष ने इस मुद्दे पर सीएम से भी बात की तो उनकी तरफ से साफ कहा गया कि काम करने की छूट सबको है. वैसे भी सभी मंत्रियों को एक या दो जिलों का प्रभार दिया गया है, वहां काम कराने के लिए वे पूरी तरह अधिकृत थे. संतोष ने घोषणापत्र को लागू करने की बात कही, लेकिन असली दारोमदार केंद्रीय नेतृत्व को दी गई उनकी रिपोर्ट पर है.


राज की बात ये है कि इस समय दिल्ली में संघ का जो तीन दिन का अनौपचारिक मंथन चल रहा है, उसमें भी यूपी पर कोरोना से लेकर मौजूदा हालात पर चर्चा हुई है. यूपी पर सोमवार को ही इस बैठक के बाद अंतिम फैसला लिया जाएगा. चाहे कैबिनेट विस्तार हो या फिर संगठन या सरकार के ढांचे में कोई परिवर्तन होगा या नहीं. कोशिश यही है कि किसी भी तरह का टकराव सतह पर नहीं आना चाहिए.


चुनाव पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा


राज की बात ये कि इसके लिए ये तो तय हो चुका है कि चुनाव पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा. यूपी में वाराणसी से सांसद मोदी की छवि पर दोनों लोकसभा चुनाव फ़तेह हुए. यूपी विधानसभा चुनाव भी मोदी के नाम पर लड़ा गया. मोदी का चेहरा और चुनाव लड़ाने की ज़िम्मेदारी फिर से गृह मंत्री अमित शाह पर होंगी. प्रभारी चाहे जो बने और अध्यक्ष कोई हो, लेकिन चुनावी अभियान की ज़िम्मेदारी वहीं संभालेंगे यह तय हो चुका है.


बाक़ी सर्वेक्षण में चाहे जो आया हो, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व का मानना है कि योगी की जगह किसी और चेहरा बनाना नुक़सानदेह होगा. संगठन में बदलाव की बात जरूर है और मंत्रिमंडल में भी. कोशिश है कि इसको लेकर किसी तरह का टकराव न हो. सुझाव या समाधान के तौर पर बहुत से उपायों पर यूपी के सीएम की कई आपत्तियां हैं तो उसे भी ध्यान में रखा जा रहा है. मगर राज की बात ये है कि संघ की दिल्ली में बैठक ख़त्म होने के बाद जब सरसंघचालक मोहन भागवत यहां से रवाना हो जाएंगे तब सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले की मुलाक़ात पीएम और अन्य पदाधिकारियों से होगी. उसमें ही अंतिम फैसला लिया जाएगा और उसे लागू करने की कार्ययोजना उतारी जाएगी. इस दौरान तमाम लोगों का आचार-व्यवहार और दबाव की सियासत का भी आकलन होगा.