Amrit Mahotsav: आज भी विकास को तरस रहा है 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले क्रांतिकारी झूरी सिंह का गांव
Story Of Great Revolutionary Jhuri Singh: देश को आजादी मिले 75 साल होने जा रहे हैं, लेकिन झूरी सिंह के स्मारक और गांव को अभी तक वो मुकाम नहीं मिला जिसका वह हकदार है. ग्रामीण इससे काफी निराश हैं.
Bhadohi News: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ पूरे भारत में जोर-शोर से मनाई जा रही है. वहीं उत्तर प्रदेश के सबसे छोटे जिले भदोही में भी लोग देशभक्ति के रंग में डूबे हुए हैं, लेकिन वहीं 1857 की क्रांति के योद्धा रहे जनपद के अमर शहीद झूरी सिंह के स्मारक और गांव का खस्ताहाल है. उनके नाम का इस्तेमाल कर राजनेता अब तक अपनी राजनीति तो बखूबी चमकाते आए हैं लेकिन उनके स्मारक और गांव को चमकाने का जिम्मा कोई नहीं लेता. उनके पौत्र-प्रपौत्र कहते हैं कि राजनेताओं से उन्हें अब तक केवल आश्वासन के अलावा और कुछ नहीं मिला. उनकी पांचवीं पीढ़ी ने abp Ganga के माध्यम से नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जमीनी स्तर पर शहीद को सही मायने में सम्मान देने की मांग की है.
झूरी सिंह के कारनामों से कांप जाती थी अंग्रेजों की रूह
भदोही में सुरियावां क्षेत्र के परऊपुर गांव में 21 अक्टूबर 1816 में एक शूरवीर बच्चे का जन्म हुआ जिसे आज महान क्रांतिवीर शहीद झूरी सिंह के नाम से जाना और पहचाना जाता है. झूरी सिंह जैसे सपूत लाखों में एक होते हैं और कुछ ऐसा कर जाते हैं जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाता है. कहा जाता है कि झूरी सिंह के कारनामों से अंग्रेजों की रूप कांप जाता करती थी और इधर-उधर बिदक कर छुप जाते थे. अंग्रेजों से भारत मां को आजाद कराने के लिए इन्होंने मरते दम तक प्रयास किया.
नील की खेती को लेकर जब अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ी जंग
उनके प्रपौत्र रामेश्वर सिंह बताते हैं कि यह वही झूरी सिंह हैं, जिन्होंने नाना साहब की सेना को उस समय शरण दी जब उनको अंग्रेजों ने घेर लिया था. अंग्रेजी हुकूमत को जब इसकी भनक लगी तो उन्होंने झूरी सिंह के सहयोगी उद्दवंत सिंह को धोखे से मार दिया. उस समय अंग्रेजी सरकार की ओर से नियुक्त रिचर्ड म्योर मिर्जापुर वाराणसी सहित भदोही में नील की अवैध खेती का देखरेख करता था और इस क्षेत्र का मुख्यालय ज्ञानपुर हुआ करता था. नील की खेती के चलते सैकड़ों ग्रामीण ना चाहते हुए भी खून के आंसू रोने को मजबूर थे. अपने किसान भाइयों की पीड़ा को देखते हुए उन्होंने एक टीम बनाकर इन खेतों पर काम करना शुरू कर दिया और अंग्रेजों के खिलाफ बगावत छेड़ दी.
इस तरह लिया था भाई की मौत का बदला
झूरी सिंह ने अवैध नील की खेती का पुरजोर विरोध किया तो वहीं झूरी सिंह के बड़े भाई की संलिप्तता पाए जाने पर अंग्रेजी अफसर रिचर्ड म्योर ने उनके भाई को फांसी पर टांग दिया. अंग्रेजी हुकूमत ने झूरी झूरी सिंह पर भी एक हजार रुपए का इनाम रख दिया. भाई की फांसी का बदला लेने के लिए उन्होंने योजना बनाई और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर क्रूर रिचर्ड म्योर सहित चार अन्य अंग्रेज अफसरों का सिर धड़ से कलम कर दिया. इस घटना ने पूरे अंग्रेजी शासन को हिलाकर रख दिया था.
झूरी सिंह के ऊपर रखा 1000 का ईनाम
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के लिए 1857 में झांसी से रानी लक्ष्मीबाई, बलिया से मंगल पांडे ने तलवार उठाई तो महाराष्ट्र के पटौदा से तात्या टोपे ने भी अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया. वहीं इस जंगे आजादी में भदोही के झूरी सिंह ने भी क्रांति का बिगुल फूंक दिया था. पूर्वी यूपी से बिहार तक अंग्रेजों की नाक में दम कर देने वाले झूरी सिंह के ऊपर अंग्रेजों ने 1000 रुपए का इनाम भी रख था.
जब अंग्रेजों ने झूरी सिंह को धोखे से पकड़ा
शहीद झूरी सिंह के पांचवीं पीढ़ी के प्रपौत्र रामेश्वर सिंह बताते हैं कि यूरोपीय इतिहासकार जेक्सन ने लिखा है कि 10 जून 1857 को भदोही में क्रांति ने बहुत ही व्यापक रूप अख्तियार कर लिया था. झूरी सिंह ने क्रांति की मशाल की लौ इतनी तेज कर दी थी कि अंग्रेज सिपाही मिर्जापुर पहाड़ी की तरफ भाग गए थे. इस बाबत अंग्रेजी हुकूमत ने झूरी सिंह को पकड़ने के लिए मेजर वार नेट, मेजर साइमन, पी वाकर, मिस्टर टकर और हेग की एक टीम बनाई और झूरी सिंह के परऊपुर गांव में भेजी. इस टीम ने परऊपुर के गांव के लोगों पर जमकर जुल्म ढहाया. आखिरकार झूरी सिंह को अंग्रेजों ने धोखे से पकड़ लिया और गोपीगंज में फांसी पर लटका दिया. फांसी पर लटकाने के बाद यह ऐलान किया गया कि कोई उनके शव को पेड़ से नहीं उतारेगा. ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि कोई और झूरी सिंह जैसा साहस न जुटा पाए. साथ ही साथ उनके गांव के कई साथियों को भी काला पानी की कठोर सजा सुनाई गई थी.
अपनी पूर्णता की बाट जोह रहा झूरी सिंह का स्मारक
रामेश्वर सिंह बताते हैं कि 1981 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीपी सिंह यहां आए थे और उन्होंने यहां के रोड का नामकरण किया और इंटर कॉलेज बनाने की घोषणा कर शहीद स्मारक स्थल का शिलान्यास किया था. इसके बाद यहां कई नेताओं और अधिकारियों का आवागमन रहा लेकिन आजादी के 75 साल पूरे होने पर भी आज तक स्मारक स्थल सही से नहीं बन सका है. जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक उदासीनता से क्रांतिकारियों का गांव आज भी उपेक्षित है. कई दशक से सांसद और विधायक स्मारक स्थल को ऐतिहासिक बनाने का दावा तो किए लेकिन जमीनी हकीकत में कुछ हुआ ही नहीं.
क्या है झूरी सिंह के गांव की मांग
झूरी सिंह के प्रपौत्र रामेश्वर सिंह ने बताया की 2019 लोकसभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे बाबा का नाम लिया तो पूरे गांव ने खुशी का इजहार किया था, तब हमें लगा था कि अब सब बढ़िया होगा लेकिन कुछ नहीं हुआ. हमारी मांग है कि यहां एक स्कूल इण्टर कॉलेज और एक छोटा सा ही सही लेकिन एक अस्पताल बन जाए तो सही मायने में शहीद झूरी सिंह और पूरे गांव को सम्मान मिलेगा.
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