Allahabad High Court: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा में प्रदूषण बरकरार रहने पर गहरी नाराज़गी जताई है. हाई कोर्ट ने यूपी जल निगम और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान खड़े किए हैं. अदालत ने इस मामले में तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि जब यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड गंगा में हो रहे प्रदूषण की जांच और कार्रवाई नहीं कर पा रहा है तो ऐसे में उसके गठन का कोई औचित्य नहीं है. कोर्ट ने सवालिया लहजे में कहा है कि क्यों न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को ख़त्म कर दिया जाए.
अदालत ने सख्त रुख अपनाते हुए नमामि गंगे प्रोजेक्ट के डायरेक्टर जनरल से गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने में खर्च किये गए अरबों के बजट का पूरा ब्यौरा पेश करने को कहा है. मामले की सुनवाई कर रही हाईकोर्ट की तीन जजों की लार्जर बेंच ने डायरेक्टर जनरल को खर्च का ब्यौरा पेश करने के लिए एक महीने की मोहलत दी है. इसके साथ ही उनसे यह भी बताने को कहा है कि अरबों रुपये खर्च किये जाने के बावजूद गंगा अब तक साफ क्यों नहीं हो सकी है. मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस मनोज कुमार गुप्ता और जस्टिस अजीत कुमार की बेंच में हुई. अदालत ने गंगा सफाई के काम को आंख में धूल झोकने वाला बताया.
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गंगा की हालत बनी हुई है जस की तस
सुनवाई के दौरान अदालत को बताया गया कि गंगा में साफ और शोधित जल नहीं जा रहा है. कानपुर में लेदर इंडस्ट्री, गजरौला में शुगर इंडस्ट्री की गंदगी बिना किसी ट्रीटमेंट के सीधे तौर पर गंगा में गिर रही है. इन फैक्ट्रियों के गंदे पानी के साथ ही शीशा, पोटेशियम और अन्य रेडियोएक्टिव चीजें गंगा को सीधे गिरकर उसके जल को प्रदूषित कर रहीं हैं. यह भी कहा गया कि यूपी में एसटीपी यानी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट ठीक से काम नहीं कर रहे हैं. इसके संचालन की ज़िम्मेदारी अडानी ग्रुप के पास है. एसटीपीज के ठीक से काम नहीं करने की वजह से गंगा की हालत कमोवेश जस की तस बनी हुई है. अदालत ने आज हुई सुनवाई के दौरान प्रोजेक्ट डायरेक्टर से मानीटरिंग सिस्टम के बारे में जानकारी ली तो पता चला कि डेटूडे बेसिस पर रोज़ाना मानीटरिंग के बजाय सिर्फ मंथली रिपोर्ट ही तैयार की जाती है. कोर्ट की नाराजगी के बाद यूपी सरकार की तरफ से रिपोर्ट तैयार करने की बात कही गई है.
ट्रीटमेंट प्लांट्स को निजी हाथों में देने से नहीं हुआ कोई फायदा
अदालत ने सुनवाई के दौरान कानपुर आईआईटी और बीएचयू आईआईटी की रिपोर्ट पर भी नाराज़गी जताई. रिपोर्ट में लिखा गया था कि कई सैम्पल की जांच इसलिए नहीं हो पाई क्योंकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जो सैंपल भेजे थे, उनमें पानी की मात्रा काफी कम थी और उतने पानी से टेस्टिंग हो ही नहीं सकती थी. कोर्ट ने तल्ख़ टिप्पणी करते हुए इसे आंखों में धूल झोकने वाला बताया और कहा कि ट्रीटमेंट प्लांट्स को निजी हाथों में देने के कोई फायदे नहीं हैं, क्योंकि वह ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं. अदालत ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा किसी पर्यावरण एक्सपर्ट या इंजीनियर की सेवाएं नहीं लिए जाने पर भी नाराज़गी जताई. अदालत इस मामले में इकतीस अगस्त को फिर से सुनवाई करेगी.