उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में उमेश पाल हत्याकांड के बाद से ही एसटीएफ का एक्शन जारी है. अतीक अहमद के बेटे असद समेत 4 आरोपी एनकाउंटर में मारा जा चुका है. असद के एनकाउंटर के बाद यूपी सरकार फिर सवालों के घेरे में है.
सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने इसे झूठा एनकाउंटर करार दिया है, जबकि मायावती ने उच्च स्तरीय जांच कराने की मांग की है. सोशल मीडिया पर सपा महासचिव राम गोपाल यादव का एक वीडियो वायरल हो रहा है.
यादव वीडियो में कह रहे हैं कि पुलिस अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिए अतीक के बेटे को मार सकती है. इधर, पुलिस ने एनकाउंटर का अपना थ्योरी लोगों के सामने रखा है. यूपी के स्पेशल डीजी प्रशांत कुमार ने कहा कि असद अतीक को छुड़ाने के लिए झांसी गया था.
कुमार ने बताया कि असद और उसके गुर्गे अतीक के काफिले पर हमला कर उसे छुड़ाने का प्लान बनाया था, जिसके बाद हमने उसे झांसी में ट्रैप किया. पकड़ने के दौरान गोलीबारी हुई और असद अपने साथी के साथ मारा गया.
यूपी में असद का केस पहला नहीं है, जब एसटीएफ के एनकाउंटर पर सवाल उठ रहा है. पहले भी कई केसों में यूपी पुलिस के एनकाउंटर पर सवाल उठ चुके हैं.
यूपी में एनकाउंटर और फेक एनकाउंटर की चर्चा के बीच आइए इसे विस्तार से जानते हैं...
फेक एनकाउंटर किसे कहते हैं
पुलिस जब किसी अपराधी को गिरफ्तार करने जाती है, तब अपराधी उस पर अगर हमला करता है, तो जवाबी हमले को एनकाउंटर कहते हैं. भारत में पुलिसिया एनकाउंटर 20वीं शताब्दी के मध्य में शुरू हुआ. उस वक्त समुद्री इलाके में गैंगस्टर से परेशान होकर पुलिस पकड़ने की बजाय उसका एनकाउंटर कर देते थे.
1970 के दशक में भारतीय फिल्मों में एनकाउंटर को खूब प्रचार प्रसार किया गया. इसी वजह से उत्तर भारत में पुलिसिया व्यवस्था में यह क्रेज में आ गया.
जब किसी आरोपित को किसी साजिश या लालच में कानून तरीके से कोर्ट में पेश न कर मार दिया जाए, तो उसे कस्टोडियल डेथ कहते हैं. किसी आरोपित को पकड़ने के साथ ही मार दिया जाए तो फेक एनकाउंटर कहते हैं.
दिल्ली पुलिस में पूर्व एसीपी वेद भूषण कहते हैं- भारत में 99 फीसदी एनकाउंटर फेक ही होता है. जब पुलिस किसी अपराधी को लेकर भारी राजनीतिक दबाव में होती है, तो आरोपी को तुरंत एनकाउंटर कर दिया जाता है.
फेक एनकाउंटर क्यों, 2 वजह...
1. राजनीतिक दबाव कम करने के लिए- जब कोई अपराध होता है और उस अपराध की वजह से सरकार घिर जाती है तो ऐसे में पुलिस बैकफुट पर आ जाती है. राजनीतिक दबाव जब पुलिस पर बढ़ता है तो इससे छुटकारा के लिए शॉर्टकट तरीका अपनाया जाता है.
शॉर्टकट तरीके में सबसे आसान आरोपी का फेक एनकाउंटर करना है. दरअसल, सरकार को डर रहता है कि कोर्ट में केस लंबा खिंचेगा और इस वजह से लोगों में गुस्सा अधिक पनपेगा. ऐसे में राजनीतिक नुकसान की संभावनाएं बढ़ जाती है. फेक एनकाउंटर इसी नुकसान को कम करने के लिए किया और कराया जाता है.
2. सांगठनिक अपराध को खत्म करने के लिए- कई दफे किसी अपराधी से पुलिस त्रस्त हो जाती है. उसे पकड़कर कोर्ट में पेश करती है और फिर वो अपराधी जमानत पर छूट जाता है. जमानत पर छूटने के बाद फिर अपराध करने लगता है.
ऐसे में पुलिस सांगठनिक अपराध पर रोक लगाने के लिए अपराधी का एनकाउंटर कर देती है. इसके पीछे बार-बार होने वाली परेशानियों को खत्म करना मकसद रहता है.
मानवाधिकार कार्यकर्ता फेक एनकाउंटर को सीधे जीवन जीने के अधिकार से जोड़ते हैं और इसे संविधान के मौलिक अधिकार का उल्लंघन बताते हैं.
आंकड़ों में छत्तीसगढ़ और यूपी टॉप पर
एनकाउंटर पर कई बार सवाल उठते हैं. सरकार को नोटिस भी जाती है, लेकिन इस पर रोक नहीं लगता है. केंद्र का डेटा भी इस बात की गवाही है. फरवरी 2022 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एनकाउंटर का डेटा संसद को बताया.
गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय के मुताबिक 2017 से लेकर 2022 तक भारत में 655 एनकाउंटर हुए. राय ने बताया कि सबसे अधिक एनकाउंटर छत्तीसगढ़ में किए गए. इन सभी एनकाउंटर पर मानवाधिकार आयोग ने पुलिस को नोटिस जारी किया था.
यहां पर 191 लोगों को एनकाउंटर में मार गिराया गया. यूपी में 117 और असम में 50 लोग एनकाउंटर में मारे गए. मानवाधिकार आयोग ने तो पूरे 18 साल का डेटा जारी कर दिया.
एक आरटीआई के जवाब में आयोग ने बताया कि भारत में 2000 से 2018 के बीच 18 साल में 1804 एनकाउंटर हुए. अकेले यूपी में 811 एनकाउंटर यानी 45% केस दर्ज किए गए. कई फेक एनकाउंटर केस में पुलिसकर्मी दोषी भी करार दिए गए.
संविधान या कानून में फेक एनकाउंटर का जिक्र है?
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ध्रुव गुप्त कहते हैं- संविधान और कानून में फेक एनकाउंटर का कहीं भी जिक्र नहीं है. हां सीआरपीसी की धारा 46 (2) में पुलिस को आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है. गुप्ता आईपीसी की धारा 100 का भी जिक्र करते हैं और कहते हैं- इसी धारा के अंतर्गत पुलिस पर एनकाउंटर करने के बावजूद हत्या का केस दर्ज नहीं किया जाता है.
हालांकि, फर्जी एनकाउंटर को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में 16 लाइन का एक गाइड लाइन तैयार किया. एनकाउटंर के बाद इसका पालन करना अनिवार्य किया गया है.
किसी अपराधी के बारे में अगर कोई खुफिया जानकारी मिलती है तो उसे लिखित या इलेक्ट्रॉनिक तरीके से आंशिक रूप में ही सही पर रिकॉर्ड अवश्य की जाए.
सूचना के आधार पर पुलिस एनकाउंटर के दौरान हथियारों का इस्तेमाल करती है और ऐसे में संदिग्ध की मौत हो जाती है तो आपराधिक जांच के लिए एफआईआर अवश्य दर्ज की जाए.
फेक एनकाउंटर की जांच एक स्वतंत्र एजेंसी करे, जो हत्या से जुड़े आठ बेसिक पहलुओं पर जरूर विचार करें.
एनकाउंटर में हुई सभी मौतों की मजिस्ट्रियल जांच जरूरी है. एनकाउंटर के तुरंत बाद मौत के संबंध में तत्काल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य आयोग को सूचित करें.
एनकाउंटर में अगर आरोपी घायल हो जाता है, तो तुरंत उसे मेडिकल सहायता मुहैया कराई जाए. यह अनिवार्य है.
एनकाउंटर में मरने वाले या घायल होने वाले आरोपी के परिवार के लोगों को तुरंत इसकी सूचना दी जाए.
एनकाउंटर की जांच होने तक पुलिस अधिकारी और सिपाही का प्रमोशन नहीं होगा. कोई पुरस्कार नहीं मिल सकेगा.
गलत या फर्जी एनकाउंटर में दोषी पाए गए पुलिसकर्मी को निलंबित कर उन पर उचित कार्रवाई की जाएगी. कार्रवाई और नियमों के पालन नहीं होने पर पीड़ित सत्र न्यायाधीश से इसकी शिकायत कर सकता है.
एनकाउंटर से क्राइम पर कितना कंट्रोल?
एनकाउंटर का अपना गणित है और राजनीतिक दल इसे क्राइम कंट्रोल फॉर्मूला के रूप में पेश करते हैं. पूर्व पुलिस अधिकारी वेद भूषण के मुताबिक जो बड़े माफिया होते हैं, वो एनकाउंटर से डर जाते हैं.
इसे आप एक संकेत के रूप में देखिए. जैसे इस्लाम शासकों के वक्त में रेप करने वालों को चौराहे पर पत्थर से कूच दिया जाता था. उससे लोगों में इस अपराध के प्रति एक डर पैदा होता था. इसी तरह कानून से आंख-मिचौली खेलने वाले बड़े माफियाओं को एनकाउंटर का डर बना रहता है.
वेद भूषण आगे कहते हैं- एनकाउंटर की वजह से कुछ दिन के लिए सांगठनिक अपराध रुक जाता है, लेकिन क्राइम रोकने के लिए यह कोई कारगर फार्मूला नहीं है.
ध्रुव गुप्त बताते हैं- पुलिस स्वतंत्रता का मामला सबसे गंभीर सवाल है. एनकाउंटर राजनीतिक दबाव में होते हैं. यानी जो राजनीति ढांचे में फिट नहीं हुए, वो मारा जाता है.
वेद भूषण के मुताबिक एनकाउंटर के लिए जो जांच कमेटी बनाई जाती है, उसमें भी अमूमन पुलिसकर्मियों को क्लीन चिट मिल जाता है. यह भी एनकाउंटर की संख्या बढ़ने के पीछे बड़ी वजह है.
अब जाते-जाते जानिए 3 बड़े एनकाउंटर के बारे में...
1. इशरत जहां मुठभेड़- बीबीसी के मुताबिक गुजरात में 2002 से 2006 तक 23 एनकाउंटर हुए थे. गुजरात पुलिस ने शुरुआत में इसे सही बताया, लेकिन इशरत जहां के मुठभेड़ पर सवाल खड़े हो गए.
15 जून 2004 को गुजरात पुलिस और इंटेलिजेंस ब्यूरो ने मिलकर इशरत जहां समेत 3 लोगों को एनकाउंटर कर दिया था. गुजरात पुलिस का कहना था कि इशरत का संबंध लश्कर-ए-तैय्यबा से है.
मामला उठने के बाद केंद्र ने सीबीआई जांच कराने की बात कही. सीबीआई ने कहा कि गुजरात पुलिस और इंटेलिजेंस ने मिलीभगत से एनकाउंटर किए. बाद में इस मामले में सभी आरोपी कोर्ट से बरी हो गए.
2. हैदराबाद एनकाउंटर- 2019 में डॉक्टर से रेप मामले में हैदराबाद पुलिस ने 4 आरोपियों को मौत के घाट उतार दिए. पुलिस सभी आरोपियों को पकड़कर क्राइम सीन री-क्रिएट करने गई थी.
एनकाउंटर का मामला सुप्रीम कोर्ट गया, जिसके बाद सर्वोच्च अदालत ने एक पैनल बनाने का निर्देश दिया. जनवरी 2022 में पैनल ने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपी थी.
पैनल ने कहा कि पुलिस ने जानबूझकर गोलियां चलाई और जो भी दावे किए वो सब गलत थे. पैनल ने एनकाउंटर में शामिल 10 पुलिसकर्मियों पर हत्या का केस चलाने का निर्देश दिया.
3. विकास दुबे एनकाउंटर- साल 2020 में कानपुर का बिकरू कांड देश भर में सुर्खियां बटोरी. इस कांड में पुलिस के अधिकारी भी मारे गए, जिसके बाद यूपी पुलिस की इकबाल पर सवाल उठने लगा.
कुछ ही दिन के भीतर कांड के मुख्य आरोपी विकास दुबे गिरफ्तार हो गया. पुलिस एमपी के उज्जैन से लेकर उसे कानपुर आ रही थी. कानपुर के भौंती पहुंचते ही पुलिस की गाड़ी पलट गई. विकास दुबे का यहीं पर एनकाउंटर हो गया.
पुलिस ने वही रटा-रटाया जवाब दिया. सरकार ने जांच के लिए कमीशन बना दी. बाद में कमीशन ने भी पुलिस को क्लीन चिट दे दिया. हालांकि, यह मामला फिर सुप्रीम कोर्ट चला गया. कोर्ट ने सरकार से रिपोर्ट सार्वजनिक करने के निर्देश दिए.