Allahabad High Court: उत्तर प्रदेश (UP) में महिला सिपाही के जेंडर चेंज यानी लिंग परिवर्तन की मांग को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में सोमवार को फिर सुनवाई हुई. इस दौरान हाईकोर्ट को बताया गया कि डीजीपी ऑफिस ने अभी तक महिला सिपाही की अर्जी पर कोई फैसला नहीं लिया है. इसके अलावा यूपी सरकार (UP Government) ने अभी तक इस बारे में कोई नियमावली भी नहीं बनाई है. चीफ सेक्रेटरी और डीजीपी की ओर से कोई कदम नहीं उठाए जाने पर हाईकोर्ट ने नाराजगी जताई.
हाईकोर्ट ने चीफ सेक्रेटरी और डीजीपी को एक और मौका दिया है. जस्टिस अजीत कुमार की सिंगल बेंच में मामले की सुनवाई हुई. कोर्ट इस मामले में 18 अक्टूबर को फिर से सुनवाई करेगी. गोंडा में तैनात महिला कॉन्स्टेबल नेहा सिंह चौहान की याचिका पर हाईकोर्ट में सुनवाई हो रही है. कोर्ट ने 18 अगस्त के आदेश में यूपी के डीजीपी को नेहा सिंह की याचिका पर फैसला लेने को कहा था. दो महीने में फैसला लेकर हाईकोर्ट में रिपोर्ट दाखिल करने को कहा गया था.
'लिंग परिवर्तन कराना संवैधानिक अधिकार'
इसके अलावा यूपी के चीफ सेक्रेटरी को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर सूबे में नियमावली बनाए जाने के भी आदेश दिए गए थे. हाईकोर्ट ने 18 अगस्त के आदेश में कहा था कि लिंग परिवर्तन कराना संवैधानिक अधिकार है. अगर आधुनिक समाज में किसी व्यक्ति को अपनी पहचान बदलने के इस अधिकार से वंचित किया जाता है तो वह सिर्फ लिंग पहचान विकार सिंड्रोम कहलाएगा. कोर्ट ने कहा है कि कभी-कभी ऐसी समस्या बेहद घातक हो सकती है. क्योंकि, ऐसा व्यक्ति विकार, चिंता, अवसाद, नकारात्मक छवि और किसी की यौन शारीरिक रचना के प्रति नापसंदगी से पीड़ित हो सकता है.
सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी कराना चाहती है महिला सिपाही
कोर्ट ने कहा था कि यदि इस तरह के संकट को कम करने के लिए मनोवैज्ञानिक उपाय असफल हो जाते हैं तो सर्जिकल दखलअंदाजी होनी चाहिए. महिला सिपाही नेहा सिंह की तरफ से कोर्ट में कहा गया था कि वह जेंडर डिस्फोरिया से पीड़ित है और खुद को एक पुरुष के रूप में पहचानती है. वह सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी कराना चाहती है.
डीजीपी ऑफिस में 11 मार्च को अर्जी दी गई थी अर्जी
इसके लिए उसने डीजीपी ऑफिस में 11 मार्च को अर्जी दी थी लेकिन उसे पर अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है. हाईकोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय में लिंग पहचान को व्यक्ति की गरिमा का अभिन्न अंग माना गया है. अदालत ने कहा था कि यदि यूपी में ऐसा नियम नहीं है तो राज्य को केंद्रीय कानून के मुताबिक अधिनियम बनाना चाहिए.
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