UP Election 2022: डाकुओं के खौफ से एनकाउंटर तक, जानें- बुंदेलखंड में डकैतों का दो दशक पुराना चुनावी इतिहास
UP Elections: बुंदेलखंड के जालौन (Jalaun) में कभी चुनाव बीहड़ के डकैतों के खौफ में संपन्न होते थे. प्रत्याशी के चुनाव में खड़े होने से लेकर वोटों की पूरी गणित डकैत ही तय करते थे.
UP Assembly Election 2022: उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज गया है और जल्द ही नामांकन के बाद मतदान की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. फैसला अब वहां के रहने वाले लोग स्वतंत्र रूप से करते हैं. लेकिन अगर दो दशक पुराना चुनावी इतिहास उठाएं तो सुनकर आप दंग रह जाएंगे. यूपी के बुंदेलखंड का चुनाव डकैतों के खौफ के साए में ही होता था. डाकुओं के खौफ से कोई भी उनके खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था. हर चुनाव में डकैतों की ओर से चुनावी मैदान में उतारे गए प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करते थे.
कब मिली डकैतों से आजादी
बुंदेलखंड के जालौन में डकैतों और चुनाव से जुड़ी एक ऐसी कड़ी है, जिसे सुन हर कोई दंग रह जाएंगा. वैसे तो देश 1947 में ही आजाद हो गया था लेकिन बीहड़ पट्टी से जुड़े गांव 2003 तक डकैतों के खौफ के साये में अपना जीवन बसर करते रहे. यमुना और चंबल के बीहड़ों की पट्टियों से सटे कई गांव, डकैतों की यातनाओं का शिकार भी होते रहे. देर से मिली इस 'आजादी' की वजह सिर्फ डकैत ही थे.
डकैतों का फरमान
बीहड़ के डकैतों की कहानियां जितनी खौफनाक हैं, लोगों पर उनका असर भी उतना ही गहरा था. जब 80 के दशक से डकैतों को सियासत का चस्का लगा और इस 'नशे' ने 2003 तक छोटे-बड़े हर चुनाव को प्रभावित किया. जीता वही, जिसके पक्ष में डकैतों ने फरमान जारी किया. फिलहाल वर्तमान में रामपुरा के पचनद के बीहड़ शांत हैं और इसकी वजह यह कि ज्यादातर डकैतों के एनकाउंटर हो चुके हैं.
कैसा था डकैतों का वो दौर
पंचायत के कुछ चुनावों में तो ऐसे मौके आए कि पर्चा भरने की आखिरी तारीख तक डकैतों के खौफ के कारण एक भी शख्स आगे नहीं आया. बाद में डकैतों ने अपने प्रत्याशी का पर्चा भरवाया और उसकी जीत सुनिश्चित कर दी. यहां के रहने वाले लोगों के मुताबिक बीहड़ों में डकैत ही अपनी सरकार चुना करते थे. बीहड़ होने की वजह से इन गांवों में पुलिस की आवाजाही कम होती थीं, जिसका फायदा उठाकर डकैत हर गांव में फरमान देने के लिए शाम के वक्त घोड़े पर सवार अपनी बंदूकों पर पसंदीदा पार्टी के झंडे लगाकर गांव-गांव घूमते थे. यह इस बात का संकेत होता था कि वोट किसे देना है. गांव में कोई भी इस फरमान के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था.
कई बार हुई मुठभेड़
बीहड़ के जंगलों में अरविंद गुर्जर, निर्भय गुर्जर, रामवीर, सलीम पहलवान, जगजीवन परिहार, चंदन यादव, रामआसरे उर्फ फक्कड़, कुसुमा नाइन और रेनू यादव के फरमान खूब चले. अपनी जिंदगी की सलामती के लिए हर कोई उनके इस आदेश को मानता था. इतना ही नहीं जालौन की माधौगढ़ सीट से डकैत रेनू यादव खुद चुनाव लड़ना चाहती थीं. पुलिस की डाकुओं के साथ हुई मुठभेड़ के दौरान कई बार प्रत्याशियों के झंडे और पैंफलेट बरामद किए गए.
2002 में हुआ एनकाउंटर
निर्भय गुर्जर, लालाराम-श्रीराम, फूलन, फक्कड और कुसुमा नाईन आदि ने करीब 25 सालों तक बीहड़ में चुनाव को प्रभावित किए. मध्यप्रदेश से चुनाव प्रचार के लिए 2002 में आया रमेश डकैत जालौन के एनकाउंटर में मारा गया. हालांकि निर्भर फक्कड़ सहित कई डाकुओं के एनकाउंटर के बाद बीहड़ो के गांवों का निजाम बदला, हवा बदली और अब यहां के लोग स्वतंत्र रूप से अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं. अपनी मर्जी से वोट डालकर अपना पसंदीदा प्रत्याशी भी चुनते हैं.
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