लखनऊ : उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में अभी भले ही सवा साल का वक्त बचा हो लेकिन सियासी समीकरण साधने की कोशिशें अभी से शुरू हो गई हैं. मज़बूत बीजेपी को टक्कर देने के लिए विपक्ष अपनी अपनी तरह से गुणा गणित करने में लगा है. दिल्ली की सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने मंगलवार को घोषणा की कि वो यूपी विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेगी तो वहीं बुधवार को एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी राजधानी लखनऊ पहुंचे और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर से मुलाक़ात कर छोटे दलों का गठबंधन बनाकर यूपी में उतरने का एलान कर दिया. इस बीच ओवैसी की कोशिश है कि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के शिवपाल यादव से भी बातचीत आगे बढ़ाकर अपने गठबंधन को मज़बूत कर यूपी में अपनी दखल मज़बूत कर सकें.


यूपी में सबसे बड़ा चेहरा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का है. 2017 में सवा तीन सौ सीटें हासिल कर सीएम बने योगी लोकप्रियता में बहुत आगे हैं. योगी आदित्यनाथ हिन्दू चेहरा तो हैं ही लेकिन अपने अबतक के कार्यकाल की तमाम उपलब्धियों को लेकर वो बेहद मज़बूत हैं. योगी के साथ बोनस के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता है. पीएम मोदी ख़ुद यूपी की वाराणसी सीट से सांसद हैं और कई मौकों पर उन्होंने खुलकर योगी आदित्यनाथ की तारीफ़ भी की है. इन्वेस्टर से लेकर डिफेंस एक्सपो और कोरोना काल से लेकर अयोध्या पर पीएम योगी की पीठ ठोक चुके हैं. ऐसे में लोकप्रियता और संगठन की मज़बूती योगी को यूपी में और ज़्यादा ताकतवर बनाती है.


देश के सबसे ज़्यादा आबादी वाले राज्य यूपी में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने पहले ही एलान कर दिया है कि वो सिर्फ छोटे दलों से गठबंधन कर 2022 के सियासी मैदान में उतरेगी. समाजवादी पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी के साथ गठबंधन किया था. दोनों ही बड़े चुनाव के सपा का पैंतरा काम नहीं आया. ऐसे में अखिलेश यादव ने पहले अकेले चुनाव में जाने का एलान किया और बाद में कहा कि अगर गठबंधन करेंगे भी तो सिर्फ छोटे दलों से. अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस पाने में लगे अखिलेश ने बीएसपी और कांग्रेस के कई पूर्व सांसदों और पूर्व विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल भी कराया है. माना जा रहा है कि हाशिये पर चल रहे कई अन्य दलों के नेता अभी सपा में शामिल हो सकते हैं. अखिलेश यादव की कोशिश है कि अगले कुछ महीनों में वो अपना समीकरण सेट करके ज़्यादा से ज़्यादा प्रत्याशियों की घोषणा कर दें, ताकि उनके उम्मीदवारों को चुनाव में तैयारी करने का भरपूर समय मिल सके.


बीएसपी की बात करें तो मायावती फ़िलहाल अकेले ही दिखाई दे रही हैं. मायावती को पता है कि सिर्फ दलित वोटों से सत्ता हासिल नहीं की जा सकती. ऐसे में बहनजी दलित और मुसलमानों का समीकरण लेकर आगे बढ़ना चाहती हैं. इस कोशिश को देखते हुए सम्भव है कि बिहार की तर्ज पर मायावती ओवैसी से हाथ मिलाने के लिए बातचीत करें. पिछले एक दो महीनों में जिस तरह परशुराम को लेकर यूपी की सियासत गरमाई जा रही थी, मायावती ब्राह्मण वोटों को साधने के भी प्रयास में हैं. ऐसे में अगर दलित, मुसलमान और ब्राह्मणों का समीकरण मायावती साध लेती हैं, तो उनका भी प्रदर्शन बेहतर हो सकता है. हालांकि ये समीकरण किसी के लिए भी सार्थक कर पाना बेहद मुश्किल काम है.


कांग्रेस यूपी में लंबे समय से अपनी ज़मीन तलाश रही है. इस बार प्रियंका गांधी के चेहरे पर मैदान में उतरने को तैयार कांग्रेस ओबीसी और ब्राह्मण को साधने में लगी है. ओबीसी समाज से आने वाले अजय लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर यह संदेश भी दिया है. साथ ही पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद को पार्टी के ब्राह्मण चेहरे के तौर पर प्रमोट किया जा रहा है. कांग्रेस की समस्या यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे महज़ 7 सीटें और लोकसभा चुनाव में सिर्फ 1 सीट हासिल हुई. पार्टी की दुर्गति का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अपने परिवार की पारंपरिक सीट अमेठी से चुनाव हार गए. जो एक सीट कांग्रेस को मिली भी वो सोनिया गांधी की रायबरेली सीट थी. ऐसे में सोनभद्र के उम्भा से लेकर हाथरस कांड में प्रियंका गांधी ने सक्रियता दिखाकर पार्टी कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की भरपूर कोशिश की. हालांकि कांग्रेस जिस मुहाने पर खड़ी है, उसको देखकर कहा जा सकता है कि फ़िलहाल पार्टी के कैडर को मज़बूत करना प्रियंका गांधी के लिए बेहद मुश्किल चुनौती है.


अब बड़ा सवाल यह है कि यूपी जैसे राज्य में आम आदमी पार्टी और एआईएमआईएम जैसी पार्टियों के उतरने से बीजेपी को कितना नुकसान हो सकता है. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका है और काशी में बाबा विश्वनाथ के मंदिर के कॉरिडोर का काम तेजी से आगे बढ़ रहा है. ऐसे में हिन्दू वोटों को तोड़कर जातीय समीकरण साधना क्षेत्रीय दलों के लिए कोई आसान काम नहीं है. हां, जैसा अक्सर चर्चा में आता है कि ओवैसी बीजेपी की बी टीम हैं. अगर वाकई ऐसा हुआ तो मुस्लिम वोटों का बिखराव बीजेपी के लिए वरदान भी बन सकता है. ख़ैर, अभी यूपी की राजनीति की अभी शुरुआत है. अभी सवा साल का वक्त बचा हुआ है. ऐसे में न जाने कितने समीकरण साधे जाएंगे और कितने ही समीकरण टूटेंगे. इसलिए क्या होगा 2022 के युपी के चुनाव में यह कहना तो बेहद कठिन है, लेकिन यह तय है कि सबसे बड़े राज्य की सबसे बड़ी लड़ाई बेहद रोचक होने वाली है, जिसकी बानगी आम आदमी पार्टी और एआईएमआईएम की घोषणा से समझी जा सकती है.


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