Kanpur News: कानपुर में 19 साल से अनशन पर बैठे हैं मजदूर, जानें क्या है उनकी मांग?
Kanpur: कानपुर महानगर में साल 2003 से 12 मिलों को बंद कर दिया गया था. इसके बाद काम कर रहे 12 सौ मजदूर बेगार हो गए. अब वे अपने हक में अनशन कर रहे हैं.
UP News: कानपुर महानगर को मिल और मजदूर के नाम से जाना जाता रहा है. यहां की बड़ी-बड़ी मिलें और खासकर टैक्सटाइल मिल्स का जलवा देश और दुनिया में कानपुर का डंका बजाता रहा है. लेकिन वक्त बीतता गया और कानपुर की इन मिलों की चिमनियों ने धीरे-धीरे धुआ उगलना बंद कर दिया. धीरे-धीरे कानपुर की 12 प्रमुख मिले बंद होती गई और मजदूर बेगार.
19 साल से मांग रहे हक
कानपुर की बंद पड़ी मिलों में से एक मिल है कानपुर की एलगिन मिल नंबर वन. एलगिन मिल में 12 सौ से ज्यादा मजदूरों को 2003 में मिल नहीं आने का फरमान सुनाया गया. जिसके बाद कई बार प्रबंधन से पूछे जाने के बादजूद इसके मजदूरों की काम पर वापसी नहीं हो सकी. नतीजतन 18 मई 2003 से एल्गिन नंबर वन मिल के बाहर बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे इन मजदूरों ने अपने हक और हुकूक के लिए अनशन शुरू किया. एक-एक दिन करते हुए 19 साल के करीब का वक्त हो चुका है.
हक मिलने का इंतजार
बूढ़े बरगद के नीचे तमाम सियासतदान सियासी वादों का पिटारा लेकर इनके बीच आए. राजनीतिक रोटियां सेकी और चुनाव मैदान में इनका समर्थन लेकर लोकसभा और विधानसभा तक पहुंच गए. यही नहीं कानपुर में रैली करने आए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई, कानपुर के वर्तमान सांसद सत्यदेव पचौरी, पूर्व केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री सतीश महाना और पूर्व लोकसभा सदस्य श्याम बिहारी मिश्रा जैसे तमाम दिग्गज वक्त-वक्त पर चुनाव से पहले आते रहे. वे हक दिलाने के वादे करते रहे लेकिन 19 साल का वक्त बीतने के बाद भी इन्हें अपने हक मिलने का इंतजार है.
सियासी दल हुए किनारे
हक की लड़ाई लड़ रहे कई मजदूर अब इस दुनिया से विदा ले चुके हैं. इस उम्मीद में कि उनकी अगली पीढ़ी को शायद उनका हक मिल जाए. क्रमिक अनशन की कड़ी में दो मजदूर रोजाना बूढ़े बरगद के नीचे बैठते हैं. यह मजदूर अब या तो ई-रिक्शा चलाते हैं, रिक्शा चलाते हैं या ठेले खोमचे लगाकर अपने परिवार का पेट पालते हैं. अब तो हद यह हो गई है कि पहले तो नेताओं की नजर क्रमिक अनशन पर बैठे इन मजदूरों पर कभी कबार पढ़ जाया करती थी. लेकिन इस बार यूपी विधानसभा चुनाव के मौके से पहले कोई भी नेता इनके दरवाजे नहीं आया. मिले बंद हैं, मजदूर बेकार हैं और अब कानपुर में कभी प्रमुख मुद्दा बनने वाले मिल और मजदूर मुद्दा भी नहीं बन पा रहे. किसी भी सियासी दल ने अब इनके बारे में सोचना ही छोड़ दिया है.
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