UP Politics: बिहार के सियासी घटनाक्रम का यूपी में क्या हो सकता है असर? यहां समझें
बिहार में बदले सियासी घटनाक्रम का असर यूपी की राजनीति पर भी पड़ सकता है. यहां जातिगत जनगणना से लेकर कुर्मी वोट समेत तमाम मुद्दे बीजेपी के लिए सर दर्द साबित हो सकते हैं.
UP News: बिहार (Bihar) में मंगलवार को नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने एडीए (NDA) से अलग होने के एलान कर दिया. जिसके बाद उन्होंने राजद (RJD) समेत सात पार्टियों के साथ गठबंधन कर नई सरकार बनाने का एलान कर दिया. वहीं बीजेपी (BJP) और जदयू (JDU) के बीच लंबे समय से चली आ रही खींचतान के बाद दोनों के रास्ते अब अलग हो गए हैं. दोनों पार्टियों की गठबंधन के दौरान जातिगत जनगणना समेत कई मुद्दों पर असहमति नजर आई. इस दौरान दोनों पार्टी के नेताओं की बयानबाजी भी एक-दूसरे के खिलाफ जारी रही. अब इस गठबंधन के टूटने के बाद यूपी पर इसके राजनीतिक प्रभाव की चर्चा काफी हो रही है.
कुर्मी वोट पर नजर
दरअसल, यूपी में बीजेपी उत्तर प्रदेश में बीजेपी गैर-यादव ओबीसी की राजनीति कर रही है. जबकि नीतीश कुमार ओबीसी की कुर्मी जाति से आते हैं जो यूपी में इस समय बीजेपी के साथ है. अब बदली हुई राजनीतिक परिस्थितयों में अगर नीतीश कुमार को सपा-आरजेडी मिलाकर आगे बढ़ाते हैं और जिस तरह से उनको पीएम मटैरियल बताने की कोशिश हो रही है, तब राज्य में खासकर पूर्वांचल की कई सीटों पर कुर्मी वोटों को लेकर घमासान हो सकता है. यूपी का ये इलाका बिहार से लगा हुआ भी है. ऐसे में बीजेपी को यहां अब नई रणनीति पर काम करना होगा. हालांकि यहां स्वतंत्र देव सिंह प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष और अनुप्रिया पटेल अभी एनडीए के साथ हैं. दोनों कुर्मी जाति से ही तालुल्क रखते हैं.
ओबीसी की राजनीति
यहां ध्यान देने की बात ये है कि यूपी की 80 और बिहार की 40 सीटों में से बीजेपी के पास बड़ा हिस्सा है. यूपी में बीजेपी के पास 66 और बिहार में 17 सांसद हैं. ऐसे में देखा जाए तो दोनों राज्यों में कुल मिलाकर 120 में से 83 सांसद अकेले बीजेपी के हैं. अगर जेडीयू-आरजेडी-सपा और कांग्रेस मिलकर इन दोनों राज्यों में ओबीसी की राजनीति शुरू करते हैं, जिसमें जातीय जनगणना मुख्य हथियार हो सकता है. तब ये भी बीजेपी के लिए बड़ा सरदर्द साबित होगा. इससे हिंदुत्व की राजनीति को भी चुनौती मिल सकती है. यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि 2015 में जब महागठबंधन की सरकार बनी थी तो नीतीश कुमार ने सीएम बनने के बाद पहली रैली वाराणसी में की थी. वाराणसी पीएम नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है.
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विपक्ष के चेहरे के तौर पर
अब बात हिंदी पट्टी की करें तो यहां सबसे खास बात ये है कि यहां विपक्ष के पास अभी तक कोई बड़ा ओबीसी नेता नहीं है जो पीएम मोदी को चुनौती दे सके. अगर समाजवादी पार्टी के जरिए नीतीश कुमार यूपी में पैठ बढ़ाते हैं तो ये प्रयोग भी बीजेपी के लिहाज से ठीक नहीं साबित होगा. ऐसी परिस्थिति में भी बीजेपी को ओबीसी वोटरों के पाला बदलने का डर बन जाएगा. नीतीश कुमार को लेकर अखिलेश यादव का जो बयान आया है उससे भी अंदाजा लगाया जा सकता है.
अखिलेश यादव का समर्थन
अखिलेश यादव ने नीतीश कुमार के बीजेपी से अलग होने पर कहा, 'बीजेपी ने पिछड़ी जातियों और दलितों के वोट तो ले लिए लेकिन उन्हें उनका हक नहीं दिया. आपका रोजगार भी छीना जा रहा है और संविधान पर भी हमला हो रहा है. ये लोग अगर ज्यादा ताकतवर हो गए, तो हो सकता है आपसे वोट का अधिकार भी छिन जाए. यह बात मजाक में मत लें.' अखिलेश यादव का बयान भी ओबीसी और पिछड़ी जाति के वोटों पर ही ध्यान खींच रहा है.
बीते कई चुनावों में हार, महाराष्ट्र में सत्ता गंवाने के बाद जहां बिहार का घटनाक्रम विपक्ष के लिए संजीवनी लेकर आया है तो वहीं यूपी में भी अखिलेश को नई ऊर्जा मिल सकती है. बीते कुछ दिनों में अखिलेश यादव भी बयानों और अपने रणनीति को लेकर चर्चा में रहे हैं. उन्होंने भी यहां सॉफ्ट हिंदुत्व वाली छवि पर फोकस किया है. अब नीतीश कुमार के विपक्षी खेमे में आने से उनके पास कुर्मी वोटों को पालने में करने के लिए चेहरा मिल सकता है. अब अगर यूपी में कुर्मियों वोटों की बात करें तो राज्य में छह फीसदी कुर्मी वोट हैं. राज्य में कुर्मियों का वोट आठ से दस सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं. जबकि करीब 50 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर इसका असर पड़ सकता है.
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