लखनऊ, एबीपी गांगा। उत्तर प्रदेश के चुनाव में राजनीतिक दलों के लिए जाति का फैक्टर काफी मायने रखता है। कई क्षेत्रों में तो जाति को देखकर ही प्रत्याशी को टिकट दिया जाता है। सबसे ज्यादा लोकसभा वाले राज्य यूपी की 80 में से 17 सीटें आरक्षित हैं। ऐसे में इन सीटों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। कभी इन सीटों पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ मानी जाती थी, लेकिन दलितों में अपनी पैठ बनाने वाली सपा और बसपा जैसे राजनीतिक दलों ने धीरे-धीरे अपनी पकड़ मजबूत की। हालांकि, पिछले कुछ सालों में बसपा की पकड़ भी ढीली हुई है। साल 2014 लोकसभा चुनाव आते-आते भाजपा ने कांग्रेस और बसपा के गढ़ में अपनी सेंध लगा दी।


2014 में भाजपा का क्लीन स्वीप
2009 के चुनाव में आरक्षित सीटों पर सपा ने अच्छा प्रदर्शन किया था। उस समय सपा के खाते में 10 सीटें आई थी। जबकि बसपा, कांग्रेस और भाजपा को दो-दो सीटें मिली। वहीं रालोद के खाते में एक ही सीट आई थी। 2014 के चुनाव में मोदी लहर पर सवार भाजपा ने सभी दलों को चौंकाते हुए सारी सीटें अपने नाम कर ली थी।


गठबंधन बिगाड़ेगा भाजपा का प्लान!
सपा-बसपा और रालोद के गठबंधन होने से भाजपा को नुकसान होना तय माना जा रहा है। गठबंधन के बाद इन 17 सीटों में से बसपा के हिस्से में 10 तो सपा के पास सात सीटें गई हैं।


भाजपा का जादू रहेगा बरकरार?
सपा-बसपा गठबंधन से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए भाजपा दलितों को अपने साथ करने में जुटी है। मोदी सरकार ने दलितों को ध्यान में रखते हुए कई योजनाएं भी लागू की है। हाल ही में प्रयागराज में अर्धकुंभ के दौरान पीएम मोदी ने सफाईकर्मियों के पैर धोकर दलित समाज में बड़ा संदेश देने की कोशिश की। आमतौर पर भाजपा स्वर्णों की पार्टी मानी जाती है, इस मिथक को तोड़ने के लिए भाजपा भरसक कोशिश में जुटी है। भाजपा का इरादा है कि किसी भी तरह दलित वोट बैंक में सेंध लगाई जाए।


उत्तर प्रदेश की आरक्षित लोकसभा सीटें
नगीना, बुलंदशहर, हाथरस, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच, बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर, राबर्ट्सगंज