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Uttarakhand: कुमाऊं मंडल में गूंज रहे बैठकी होली के गीत, सैकड़ों साल पुरानी परंपरा का हो रहा निर्वहन

Nainital News: कुमाऊं क्षेत्र में इन दिनों बैठकी होली का दौर चरम पर है. यह परंपरा न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि कुमाऊं की सांस्कृतिक विरासत को भी दर्शाती है. इसकी परंपरा सैकड़ों साल से चली आ रही है.

Uttarakhand News: उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में इन दिनों बैठकी होली (Kumaoni baithaki Holi) का दौर चरम पर है. यह परंपरा न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि कुमाऊं की सांस्कृतिक विरासत को भी दर्शाती है. माना जाता है कि बैठकी होली का इतिहास 1000 साल से भी अधिक पुराना है, जिसकी शुरुआत सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से हुई. कुमाऊं में बैठकी होली की शुरुआत हर साल पौष मास के पहले रविवार से होती है. यह परंपरा बसंत पंचमी तक चलती है और फिर होली के त्योहार तक इसका उत्साह अपने चरम पर होता है. इन दिनों रामनगर, नैनीताल, अल्मोड़ा और हल्द्वानी जैसे शहरों में होली गायन की धुनें गूंज रही हैं.

बैठकी होली में विभिन्न रागों पर आधारित भक्ति और श्रृंगार रस से सराबोर गीत गाए जाते हैं. गीतों की शुरुआत "भव भंजन गुन गाऊं, मैं अपने राम को रिझाऊं" से होती है और समापन "क्या जिंदगी का ठिकाना" जैसे गीतों से होता है. इस दौरान सूर्य की आराधना की परंपरा का भी पालन किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि कुमाऊं में बैठकी होली की परंपरा 15वीं शताब्दी में चंद वंश के शासनकाल के दौरान शुरू हुई. काली कुमाऊं, गुमदेश और सुई जैसे क्षेत्रों से शुरू होकर यह धीरे-धीरे पूरे कुमाऊं में फैल गई. गणेश पूजन से शुरू होकर यह गायन ब्रज के राधा-कृष्ण की हंसी-ठिठोली तक पहुंचता है.

'राधा-कृष्ण की लीलाओं से जुड़े होतें हैं गीत'
होली गायक हीरा बल्लभ पाठक बताते हैं, "बैठकी होली में गाए जाने वाले गीत राधा-कृष्ण की लीलाओं और भक्ति संगीत से जुड़े होते हैं. यह परंपरा लोगों को भगवान से जोड़ने के साथ-साथ कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने का काम करती है." बैठकी होली का गायन पूरी तरह शास्त्रीय संगीत पर आधारित होता है. इसमें राग भैरवी और अन्य रागों का उपयोग किया जाता है. यह गायन घरों, मंदिरों और सामुदायिक स्थानों पर किया जाता है.

15 दिसंबर से शुरू हुआ था गायन होली
होली गायक और शिक्षक कैलाश चंद्र त्रिपाठी कहते हैं, "इस वर्ष बैठकी होली का गायन 15 दिसंबर 2024 से शुरू हुआ है और यह बसंत पंचमी के बाद तक चलेगा. इसमें भक्ति गीत, प्रभु के भजन और निर्वाण से संबंधित कविताएं गाई जाती हैं. यह परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित हो रही है, जिससे हमारी संस्कृति जीवंत बनी रहती है." बैठकी होली का एक उद्देश्य नई पीढ़ी को इस परंपरा से जोड़ना भी है. होली गायक शेखर चंद जोशी का कहना है, "बैठकी होली नई पीढ़ी को हमारी सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ने का माध्यम है. हम चाहते हैं कि युवा इस परंपरा में शामिल हों और इसे आगे बढ़ाएं."

पूर्व शिक्षक विपिन कुमार पंत बताते हैं, "बैठकी होली का आधार शास्त्रीय संगीत है. यह राग भैरवी और अन्य रागों का संयोजन है, जिसमें संगीत का गहरा ज्ञान छिपा है. सर्दियों की ठंडी रातों में लोग आग के चारों ओर बैठकर इस गायन का आनंद लेते हैं." बैठकी होली को "विष्णुपति होली" भी कहा जाता है. इसका उद्देश्य भगवान विष्णु की आराधना और भक्ति भावना को प्रकट करना है. यह खड़ी होली से बिल्कुल भिन्न है, क्योंकि इसमें केवल भक्ति संगीत गाया जाता है. बैठकी होली के गीतों में गहराई और गंभीरता होती है. इनमें राधा-कृष्ण की लीलाओं, ब्रज की कहानियों और भक्ति रस का मिश्रण होता है. गीतों के बोल न केवल भक्ति भावना को जागृत करते हैं, बल्कि श्रोताओं को आध्यात्मिक शांति भी प्रदान करते हैं.

कुमाऊं की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा
बैठकी होली कुमाऊं की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है. यह न केवल संगीत का उत्सव है, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत बनाए रखने का प्रयास भी है. होली गायक हीरा बल्लभ पाठक कहते हैं, "बैठकी होली हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है. इसमें गाए जाने वाले गीत हमें भक्ति और श्रृंगार के रस में डुबो देते हैं. यह परंपरा हमें हमारी सांस्कृतिक पहचान का एहसास कराती है." कुमाऊं की बैठकी होली केवल एक संगीत उत्सव नहीं है, बल्कि यह क्षेत्र की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है. यह परंपरा हमें यह सिखाती है कि कैसे हमारी सांस्कृतिक धरोहर को आने वाली पीढ़ियों तक हस्तांतरित किया जा सकता है.

इस वर्ष की बैठकी होली में जहां बुजुर्गों ने अपने अनुभव साझा किए, वहीं युवाओं ने इसे सीखने में उत्साह दिखाया. बसंत पंचमी के बाद जब यह परंपरा अपने चरम पर होगी, तो यह कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर का एक और शानदार अध्याय जोड़ेगी.

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