नई दिल्लीः उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का सरकारी बंगला क्या अभिशप्त है या फिर इस कुर्सी की किस्मत में ही बगावत झेलना लिखा है. 21 बरस पहले नया राज्य बनने से लेकर अब तक जो भी मुख्यमंत्री बना, वह पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले ही "पूर्व" हो गया.
इस मामले में कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी ही सिर्फ अपवाद हैं जिन्होंने साल 2002 से 2007 तक अपना कार्यकाल जैसे-तैसे पूरा किया. लेकिन जब उन्होंने कुर्सी संभाली, तब तक देहरादून में मुख्यमंत्री के लिए स्थायी सरकारी आवास नहीं बन पाया था, लिहाजा बीजापुर गेस्ट हाउस को ही अस्थायी आवास में तब्दील कर दिया गया था. न्यू कैंट रोड पर सरकारी बंगला बन जाने और उसमें शिफ्ट होने के बाद ऐसा ग्रहण लगा कि न तो वे दोबारा मुख्यमंत्री बन सके और न ही कांग्रेस सत्ता में लौट सकी.
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने साल 2000 में उत्तराखंड समेत तीन नए राज्यों का गठन किया था, तब नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बीजेपी की अंतरिम सरकार ने सूबे की कमान संभाली थी. उसके बाद 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में लोगों ने कांग्रेस को सत्ता सौंप दी और तब तिवारी मुख्यमंत्री बने थे. उसके बाद बीजेपी के बीएस खंडूरी, भगत सिंह कोश्यारी, रमेश पोखरियाल निशंक से लेकर अब त्रिवेंद्र सिंह रावत तक कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. इसी तरह कांग्रेस से विजय बहुगुणा और हरीश रावत भी पांच साल तक कुर्सी पर नहीं टिक पाये.
देखा जाए तो देश के बाकी राज्यों की तुलना में उत्तराखंड की सियासत में बग़ावती तेवर वाले नेताओं की भरमार है और कांग्रेस व बीजेपी दोनों ही पार्टियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है. कांग्रेस से बगावत करके बीजेपी में आने वाले विधायकों ने इस पार्टी के डीएनए को भी इतना बिगाड़ दिया है कि जिसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी आलाकमान को आज रावत की बलि लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. चूंकि अगले साल यहां विधानसभा चुनाव हैं और ऐसे में बीजेपी नेतृत्व कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था, लिहाज़ा न चाहते हुए भी उसे बगावत का परचम उठाए विधायकों व मंत्रियों के आगे झुकना पड़ा. लेकिन अलग चाल, चरित्र व चेहरे के साथ सख्त अनुशासन को अपनाने वाली पार्टी के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.
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