मंडल मसीहा VP Singh के नाम पर राजनीति की, सत्ता भोगी...फिर भी उन्हें भूल गए ये दल, आखिर क्यों?
सवाल उठता है कि आज के वक्त में वीपी सिंह की वैचारिकी की विरासत राजनीति में कौन संभाल सकता है? जिन्होंने वैचारिकी की विरासत संभालने का दावा किया, उन्होंने सत्ता में रहते हुए VP Singh के लिए क्या किया?
VP Singh Statue: भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की आज पुण्यतिथि है. उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर तमिलनाडु स्थित चेन्नई में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) की सरकार ने प्रतिमा का अनावरण किया. इस दौरान समाजवादी पार्टी के प्रमुख और यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव, स्व. वीपी सिंह की पत्नी सीता कुमारी, उनके बेटे अजय और अभय सिंह मौजूद रहे. वीपी सिंह ने अपने संक्षिप्त कार्यकाल में कई फैसले किए लेकिन आरक्षण पर लिए गए निर्णय का देश भर में ऐसा असर पड़ा कि आग भड़क उठी. कहीं आरक्षण के समर्थन में आवाज उठी तो कहीं विरोध में आत्मदाह.
आज मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के फैसले को 3 दशक से ज्यादा बीत गए हैं और इन 30-33 सालों में कई नेता और राजनीतिक दल आए जिन्होंने दावा किया कि वह सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते हैं. ऐसे में यह सवाल उठता है कि आज के वक्त में वीपी सिंह की वैचारिकी की विरासत राजनीति में कौन संभाल सकता है? सवाल यह भी है कि जिन्होंने वैचारिकी की विरासत संभालने का दावा किया, उन्होंने सत्ता में रहने के दौरान वीपी सिंह के विचारों के लिए क्या किया?
दक्षिण में मूर्ति के क्या हैं मायने?
देश में सामाजिक न्याय के मसीहा कहे जाने वाले वीपी सिंह का स्टालिन के पिता करुणानिधि और उनकी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से पुराना रिश्ता रहा है. साल 1990 के नवंबर में जब वीपी सिंह की सरकार गिरी उसके बाद डीएमके और करुणानिधि से उनके रिश्ते मधुर होते गए. माना जाता है कि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने वाले वीपी सिंह के लिए दक्षिण के दरवाजे उस वक्त भी खुले रहे जब वह अपने राजनीतिक सफर के अवसान की दहलीज पर थे.
आगामी लोकसभा चुनाव से पहले वीपी सिंह के निधन के 15 साल दक्षिण भारत में उनकी आदमकद प्रतिमा लगाने के कई मायने निकाले जा रहे हैं. यूं तो वीपी सिंह की राजनीतिक शुरुआत उत्तर भारत से हुई और वह देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. वह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार में वित्त मंत्री रहे और फिर उन्हीं की सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद कर पीएम बने.
लेकिन ऐसा क्या हुआ कि जिस सामाजिक न्याय को आधार बना कर 1980 और 1990 के दशक में उत्तर भारत समेत देश के कई क्षेत्रों में क्षेत्रीय दलों का प्रस्फुटन हुआ और वह सालों तक सत्ता पर काबिज रहे, वह अब वीपी सिंह को याद करना भी गुनाह समझते हैं. याद करना तो छोड़िए क्षेत्रीय दल अपनी साभाओं और चुनावी रैलियों में वीपी सिंह की बात तक नहीं करते.
गृह राज्य में ही उनका कोई नाम लेने वाला नहीं?
सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करने वाले राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के लिए वीपी सिंह, अब केवल जयंती और पुण्यतिथि पर याद करने भर की बात रह गए हैं. समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, झारखंड मुक्ति मोर्चा समेत कई दलों ने वीपी सिंह के सामाजिक न्याय के मुद्दे को भुनाया. चुनाव जीता. सरकारों में रहे और सालों साल सत्ता का आनंद उठाया लेकिन किसी ने भी राजनीतिक लाभ के लिए ही सही वीपी सिंह को ढंग से याद करने की जहमत नहीं उठाई.
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सामाजिक न्याय के झंडाबरदारों ने आज तक इसलिए वीपी सिंह को उचित सम्मान नहीं दिया क्योंकि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर के भूतपूर्व प्रधानमंत्री अपनी ही जाति और सवर्ण बिरादरी में खलनायक बन गए थे. सामाजिक न्याय के दलों ने चुनावी राजनीति में सबको साथ लाने के नाम पर वीपी सिंह से दूरी बनाते रहे और आज स्थिति ये है कि भूतपूर्व पीएम के गृह राज्य में ही उनका कोई नाम लेने वाला नहीं बचा है.
सालों साल सत्ता में रहने और सामाजिक न्याय के वर्ग के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर येन-केन-प्रकारेण राजनीति में बने रहने वाले दलों से बीते 15 साल में इतना नहीं हो पाया कि वह वीपी सिंह की एक आदमकद प्रतिमा लगवा सकें या कोई कॉलेज या यूनिवर्सिटी या स्टेडियम का नामकरण उनके नाम पर कर सकें?
सालों पहले एक साक्षात्कार में वीपी सिंह ने कहा था- ‘केंचुए को मरना पड़ता है तितली के जन्म के लिए.'