फ़ैज़ की जिस ग़ज़ल पर मचा है कोहराम, वाजपेयी के न्यौते पर सबसे पहले वह इलाहाबाद में हुई थी पेश
फैज़ की नज्म पर भले ही विवाद छिड़ा हो। लेकिन यहां याद दिलाना जरूरी है कि फैज को पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत बुलाया था। बाजपेयी फैज के जबरदस्त मुरीद थे
प्रयागराज, मोहम्मद मोइन। पाकिस्तानी शायर फैज़ अहमद फ़ैज़ की जिस नज़्म को लेकर देश भर में कोहराम मचा है, उसे इस नामचीन शायर ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के न्यौते पर भारत में सबसे पहले इलाहाबाद में पढ़ी थी। इलाहाबाद में चालीस साल पहले हुए मुशायरे में यह नज़्म इस कदर पसंद की गई कि फैज़ को इसे कई बार पढ़ना पड़ा था। यहीं से उनकी नज़्म "हम देखेंगे" भारत के लोगों के जेहन में बस गई थी। इकबाल बानों की आवाज़ ने तो हिन्दुस्तान के लोगों को फैज़ की इस नज़्म का दीवाना बना दिया था। चालीस साल बाद आज की पीढ़ी भी उसी दिलचस्पी और संजीदगी के साथ इस नज़्म को सुनती है। कानपुर आईआईटी के विवाद को अगर दरकिनार कर दें तो भी यह नज़्म किसी व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश ज़ाहिर करने का ऐसा बेनज़ीर सबब बनी हुई है, जिसकी अहमियत चार दशकों बाद भी पहले की तरह ही कायम है।
फैज़ की शख्सियत का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उनके मुरीद थे। फैज़ की यह नज़्म खुद वाजपेयी जी को भी खूब पसंद थी। वाजपेयी की पसंद की एक बड़ी वजह भी थी। फैज़ अहमद फैज़ ने 1977 में यह नज़्म पाकिस्तान में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल जिया उल हक़ द्वारा जुल्फिकार अली भुट्टो के तख्ता पलट की घटना पर लिखी थी। इसका उन्हें ज़बरदस्त विरोध भी झेलना पड़ा था। फैज़ पर इस कदर शिकंजा कसा गया था कि उन्हें लम्बे अरसे के लिए पाकिस्तान छोड़कर दूसरे मुल्कों में शरण लेना पड़ी थी। जिस वक्त फैज़ ने इस एतिहासिक नज़्म को कागज़ पर उतारा था, उस वक्त भारत में भी इमरजेंसी का खात्मा होकर नये चुनावों और जनता पार्टी की सरकार का आगाज़ हो रहा था। भारत में भी तत्कालीन व्यवस्था के प्रति लोगों में उपजा आक्रोश चरम पर था।
1977 में इमरजेंसी के खात्मे के बाद मोरार जी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। इस सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने थे। वाजपेयी जी फैज़ की शायरी के जबरदस्त मुरीद थे। उन्हें फैज की नज़्म "हम देखेंगे" खासी पसंद थी। विदेश मंत्री बनने के बाद वाजपेयी जी जब पाकिस्तान गए तो वहां वह प्रोटोकॉल तोड़कर फैज़ से मिले थे। उन्होंने फैज़ से एक शेर सुना था और उनकी चर्चित नज़्म "हम देखेंगे" की जमकर तारीफ़ करते हुए उन्हें भारत आने का न्यौता दिया था। अटल बिहारी वाजपेयी के न्यौते पर ही फैज़ अहमद फैज़ कुछ महीनों बाद भारत आए थे और यहां दिल्ली - मुंबई व इलाहाबाद समेत कई शहरों में अपनी रचनाएं पेश की थीं।
1980 में इलाहाबाद में अंजुमन ए रूहे अदब नाम की संस्था ने फैज़ को फोकस कर एक मुशायरे का आयोजन किया था। इसमें फिराक गोरखपुरी और महादेवी वर्मा समेत कई दूसरे नामचीन रचनाकार भी शामिल हुए थे। इस मुशायरे की शुरुआत नवगीत के रचनाकार और नामचीन कवि यश मालवीय ने सरस्वती वंदना के साथ की थी। यश मालवीय उस वक्त महज़ अठारह साल के थे। यश मालवीय की आवाज़ और प्रस्तुतिकरण फैज़ अहमद फ़ैज़ को इस कदर पसंद आया था कि उन्होंने मंच पर ही गले लगाते हुए उनको चूम लिया था और उन्हें आटोग्राफ भी दिया था।
अंजुमन ए रूहे अदब के इसी मंच पर फैज़ ने भारत में पहली बार अपनी नज़्म "हम देखेंगे" को पूरे तौर पर लय के साथ सुनाया था। इलाहाबाद के इस कार्यक्रम में फैज़ की नज़्म इस कदर पसंद की गई कि उन्हें इसे कई बार सुनाना पड़ा था। फिराक और कई दूसरे नामचीन शायरों की मौजूदगी में हजारों ग़ज़ल प्रेमियों ने झूमते हुए फैज़ के साथ इसे गुनगुनाया था। इलाहाबाद में पूरी नज़्म पढ़ने और लोगों द्वारा ज़बरदस्त पसंद किये जाने के चलते फैज़ को बाद में दूसरे शहरों में भी इसे कई बार सुनाना पड़ता था। इकबाल बानो की आवाज़ ने तो फैज़ की इस नज़्म को हमेशा के लिए अमर कर दिया। उनकी यह नज़्म जितना पाकिस्तान में पसंद की जाती है, उससे कहीं ज़्यादा भारत के ग़ज़ल प्रेमियों में।
फैज़ की यह अमर रचना एक बार सुर्ख़ियों में है। लेकिन इस बार इसके साथ विवाद भी जुड़ गया है। नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में कानपुर आईआईटी में हुए प्रदर्शन के दौरान वहां के स्टूडेंट्स ने इस नज़्म को गाते हुए अपनी नाराज़गी जताई थी। इसके बाद व्यवस्था के प्रति आक्रोश जताने वाली यह रचना सरकार और एक ख़ास धर्म के आरोपों में आकर विवादों में घिर गई। आग में घी का काम किया, आईआईटी प्रशासन द्वारा जांच बिठाए जाने के फैसले ने। हालांकि आईआईटी प्रशासन अब बैकफुट पर है और अपनी सफाई दे रहा है, लेकिन कहा जा सकता है कि विवादों के बहाने ही सही, लेकिन फैज़ की यह नज़्म एक बार फ़िर चर्चा का सबब ज़रूर बन गई है। हालांकि उर्दू अदब के जानकारों के साथ ही दूसरे साहित्यकार भी इस विवाद से दुखी हैं और वह इसे गलत परंपरा की शुरुआत मान रहे हैं। उनका मानना है कि जैसे हवा और सूरज की रोशनी को किसी दायरे में नहीं बांधा जा सकता है, उसी तरह फैज़ जैसे इंकलाबी शायर को किसी सरहद व मज़हब के दायरे में बांधकर उसका अपने हिसाब से मतलब निकालना संस्कृति व परंपरा के खिलाफ है।