उत्तर प्रदेश की राजनीति में 90 का दशक अहम मोड़ था. पूरे देश में मंदिर आंदोलन की राजनीति चरम पर थी. ये वो दौर था जब यूपी में कांग्रेस सब कुछ गंवा चुकी थी. मुसलमान और ओबीसी की सबसे बड़ी जाति यादव समाजवादी पार्टी के साथ, दलितों पर बीएसपी का दावा था तो उच्च वर्ग बीजेपी के साथ. 


उसी वक्त वाराणसी में एक ऐसे युवा की राजनीतिक आकांक्षाएं कुलांचे मार रही थी जो दबंग था, मुख्तार अंसारी को चुनौती देने का माद्दा रखता था, जिसका नाम था अजय राय. राम मंदिर आंदोलन के चलते अजय राय वाराणसी जेल में भी बंद रहे. राय आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी से जुड़े थे. धीरे-धीरे वो संघ के बड़े नेताओं के करीब आने लगे.


साल 1996 में पूरे उत्तर प्रदेश में बीजेपी की राजनीति चरम पर थी. हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति में अजय राय एकदम फिट थे. इसके साथ ही वो पूर्वांचल में मुख्तार अंसारी से दुश्मनी मोल ले रहे थे. इसी साल वो बीजेपी के टिकट से विधायक चुने गए. 


विधायक बनने से पहले ही उनके भाई अवधेश राय को गोली मार दी गई थी. इसका आरोप मुख्तार अंसारी पर ही लगा और दोष भी साबित हुआ. अजय राय के पक्ष में सहानुभूति की लहर थी. वो कोलसला (अब पिंडारा) सीट पर बीजेपी के टिकट से विधायक चुने गए. उन्होंने सीपीआई के दिग्गज नेता और 9 बार से विधायक रहे ऊदल को हराया था. अजय राय पूर्वांचल में बीजेपी के बड़े नेता बन चुके थे. 1996 से लेकर 2007 तक वह विधानसभा का चुनाव जीतते रहे. इलाके में उनकी छवि दबंग हिंदूवादी नेता की थी.


अजय राय अब लोकसभा जाने का मन बना चुके थे. साल 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने डॉ.मुरली मनोहर जोशी को वाराणसी से टिकट दे दिया. अजय राय नाराज हो गए. उन्होंने समाजवादी पार्टी में शामिल होने का फैसला कर लिया और लोकसभा का चुनाव भी लड़ा. इस चुनाव में वो तीसरे नंबर पर रहे. डॉ. जोशी वाराणसी से सांसद चुने गए. साल 2012 में अजय राय कांग्रेस में शामिल हो गए. 


साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सियासी बिसात कुछ ऐसी बिछी कि आरएसएस एक प्रचारक यानी पीएम मोदी को चुनौती देने उनके सामने एबीवीपी से निकला एक नेता सामने था. अजय राय कांग्रेस के टिकट से नरेंद्र मोदी का रथ रोकने आ गए. लेकिन अजय राय चुनाव हार गए. इसके बावजूद भी कांग्रेस में उनका कद बढ़ता गया.साल 2019 के चुनाव में फिर अजय राय को हार का सामना करना पड़ा. 


बीते महीने 17 अगस्त को जब कांग्रेस ने दलित नेता बृजलाल खाबरी को हटाकर अजय राय को यूपी की कमान सौंपी तो सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा हुआ कि हिंदुत्व की प्रयोगशाला से निकले शख्स को इतनी बड़ी जिम्मेदारी क्यों दी गई.


लोकसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले ये फैसला चौंकाने वाला था. बृजलाल खाबरी दलित समुदाय से आते हैं. यूपी में ये समुदाय कुल जनसंख्या का 21.5 फीसदी है. वहीं, अजय राय भूमिहार हैं जिनकी संख्या बहुत ज्यादा तो नहीं है लेकिन वाराणसी और आसपास के जिलों में प्रभावशाली हैं. 


वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार विभूति नारायण चतुर्वेदी का कहना है,'दरअसल कांग्रेस को ऐसा नेता चाहिए जो संगठन को खड़ा कर सके. प्रियंका गांधी की सक्रियता के बाद कांग्रेस पार्टी अपने कई नेताओं को आजमा चुकी है. अजय राय अपने क्षेत्र में जमीन से जुड़े नेता हैं और पार्टी को लगता है कि वह कांग्रेस को लोगों से जोड़ पाएंगे. 


वहीं जब सवाल जातिगत समीकरणों को लेकर किया गया तो चतुर्वेदी का कहना है कि अजय राय भूमिहार ब्राह्मण समुदाय से हैं जो बहुत बड़ा वोट बैंक नहीं है. लेकिन यह प्रभावशाली समुदाय माना जाता है और पूर्वांचल के गाजीपुर, मऊ और बलिया में इसकी अच्छी संख्या है. अजय राय की पहली चुनौती कांग्रेस के परम्परागत वोट को वापस लाना और पार्टी को हिन्दू हितैषी साबित करना होगी.


वहीं पार्टी के इस फैसले पर वाराणसी में ही कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि ऐसा लगता है कि आलाकमान ने अजय राय का वाराणसी और आसपास के इलाके में प्रभाव को देखते हुए प्रदेश अध्यक्ष बनाने का फैसला किया है और इसमें जातिगत समीकरण मायने नहीं रखते हैं. कांग्रेस नेताओं का कहना है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे खुद ही दलित हैं. यूपी में एक ऐसा नेता की जरूरत थी जो सड़क पर संघर्ष कर सके. 


लेकिन अजय राय को प्रदेश अध्यक्ष की कमान के मिलने के साथ ही पार्टी के सामने कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं. अजय राय को सिर्फ पीएम मोदी के हाथों हार ही नहीं मिली है, बल्कि उनकी पैठ भी उनके अपने गढ़ पिंडारा में लगातार कम हो रही है.


कांग्रेस में आने के बाद से अजय राय 2017 और 2012 के  विधानसभा चुनाव में भी पिंडारा सीट पर तीसरे नंबर पर रहे हैं. दूसरी ओर कांग्रेस यूपी में अब तक की सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. ये बात अलग है कि यूपी में अजय राय, प्रियंका गांधी के सबसे नजदीकी नेताओं में से एक हैं, लेकिन क्या वो सिर्फ अपनी छवि की बदौलत कांग्रेस को 2024 के लिए तैयार कर पाएंगे.