लखनऊ-मथुरा समेत 37 जिलों में नगर निकाय चुनाव के लिए मतदान जारी हैं. पहले चरण में नामांकन से लेकर प्रचार अभियान तक सबसे अधिक चर्चा में मथुरा नगर निगम ही रहा. यहां पर कांग्रेस, सपा और आरएलडी में बड़ा उलटफेर हुआ. इतना ही नहीं, अंत में ऐसा राजनीतिक समीकरण बना कि पहली बार आरएलडी, सपा और कांग्रेस एक साथ आ गई.
दरअसल, राजनीतिक उलटफेर में मथुरा नगर निगम के निर्दलीय उम्मीदवार राजकुमार रावत को कांग्रेस, सपा और आरएलडी ने समर्थन दिया है. रावत चुनाव की घोषणा से पहले मायावती की पार्टी बीएसपी में थे.
दिलचस्प बात है कि सपा और कांग्रेस के सिंबल पर यहां पहले से ही प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं. हालांकि, अखिलेश, प्रियंका और जयंत का समर्थन मिलने के बाद रावत मुख्य विपक्षी उम्मीदवार हो गए हैं.
रावत का यहां सीधा मुकाबला बीजेपी के विनोद अग्रवाल से हैं, जो पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सुनील बंसल के रिश्तेदार हैं. मथुरा-वृंदावन नगर निगम का गठन साल 2017 में हुआ. उस साल हुए चुनाव में बीजेपी के मुकेश आर्यबंधु ने जीत दर्ज कर मेयर की कुर्सी संभाली थी.
कौन हैं राजकुमार रावत?
राजकुमार रावत की पहचान मथुरा में एक कद्दावर स्थानीय नेता की है. रावत की राजनीति में एंट्री ब्लॉक प्रमुख के तौर पर हुई थी. साल 1995 में राया ब्लॉक के प्रमुख का चुनाव जीतकर सक्रिय पॉलिटिक्स में आए थे.
58 साल के रावत 2 बार विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं. 2012 में उन्होंने बलदेव सीट से और 2017 में गोवर्धन सीट से जीत दर्ज की थी. 2022 में भी बीएसपी के टिकट पर उन्होंने किस्मत अजमाया था, लेकिन हार गए थे.
2022 में दाखिल हलफनामे के मुताबिक 12वीं पास रावत पर कोई भी आपराधिक मुकदमा नहीं है. पॉलिटिक्स में रावत का परिवार भी सक्रिय है और उकी पत्नी 2001 में राया से ब्लॉक प्रमुख रह चुकी हैं.
अप्रैल में बीएसपी छोड़ रावत कांग्रेस में शामिल हो गए थे, लेकिन पार्टी की आंतरिक गुटबाजी की वजह से कांग्रेस सिंबल पर चुनाव नहीं लड़ पाए. दरअसल, कांग्रेस ने श्याम सुंदर बिट्टू और रावत दोनों को सिंबल दे दिया, जिसके बाद चुनाव आयोग ने बिट्टू को कांग्रेस का अधिकृत प्रत्याशी घोषित कर दिया.
चुनाव आयोग के फैसले के बाद खुद प्रियंका गांधी ने रावत के समर्थन में पत्र जारी किया था. इतना ही नहीं, बिट्टू को कांग्रेस ने 6 साल के लिए निलंबित कर दिया. कांग्रेस ने मथुरा जीतने की जिम्मेदारी दीपेंद्र हुड्डा और तौकीर आलम को सौंपी है.
राजकुमार रावत को सपोर्ट क्यों, 3 वजहें...
1. मजबूत लोकल कैंडिडेट- बीजेपी प्रत्याशी के मुकाबले राजकुमार रावत सबसे मजबूत कैंडिडेट हैं. रावत बीएसपी में हाल ही में इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हुए थे. 2007-2012 तक बलदेव सीट से और 2012-2017 तक गोवर्धन सीट से विधायक रह चुके हैं.
बलदेव और गोवर्धन दोनों सीटें जाट बहुल मानी जाती है. रावत का पॉलिटिकिल करियर भी पंचायत स्तर के चुनाव से ही शुरू हुआ था. रावत की पत्नी भी राया से ब्लॉक प्रमुख रह चुकी हैं. यही वजह है कि विपक्ष की सभी पार्टियों ने रावत को समर्थन दे दिया है.
रावत युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं और अपने मुखर भाषणों के जरिए खूब सुर्खियों में रहते हैं. हाल ही में चुनाव प्रचार के दौरान एक जगह सड़क पर जमे पानी को बाल्टी से हटाते रावत की तस्वीर वायरल हुई थी.
2. जयंत चौधरी से नहीं बनी बात- मथुरा सीट आरएलएडी का गढ़ माना जाता रहा है. 2009 में जयंत चौधरी इस सीट से लोकसभा पहुंचे थे. 2022 के चुनाव में आरएलडी ने जिले की 5 में से 3 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इस बार भी नगर निगम में मथुरा सीट पर आरएलडी की मजबूत दावेदारी मानी जा रही थी.
हालांकि, चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद अखिलेश यादव ने यहां से अपने उम्मीदवार उतार दिए. इसका तुरंत आरएलडी ने प्रतिक्रिया दी और सपा के कई सीटों पर अपने लोगों को सिंबल देना शुरू किया. विवाद बढ़ने के बाद दोनों के बीच सुलह की कोशिश हुई और कुछ सीटों पर उम्मीदवार को हटाया गया.
इसी कड़ी में मथुरा पर भी सपा ने फैसला किया और निर्दलीय राजकुमार रावत को समर्थन देने का ऐलान किया. सपा के कुछ देर बाद ही आरएलडी ने भी रावत को अपना समर्थन दे दिया.
3. सपा कैंडिडेट का वीडियो वायरल- समाजवादी पार्टी ने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए तुलसी राम शर्मा को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन चुनाव से ऐन पहले उनका एक कथित वीडियो वायरल हो गया था, जिसके बाद पार्टी बैकफुट पर आ गई थी. हालांकि, उम्मीदवार इसे साजिश बताकर खुद को बचाने की खूब कोशिश की.
सपा की जिला इकाई ने इसके बाद पूरी रिपोर्ट हाईकमान तक पहुंचाई और फिर रावत को समर्थन देने का फैसला किया गया. तुलसी राम शर्मा की गिनती मुलायम सिंह के करीबी नेताओं में होती थी. शर्मा मथुरा के जिलाध्यक्ष भी रह चुके हैं.
शर्मा के नाम पर शुरू से ही आरएलडी को आपत्ति थी. वीडियो आने के बाद आरएलडी ने और अधिक दबाव बना दिया, जिसके बाद हाईकमान को अपना फैसला वापस लेना पड़ा.
मथुरा का जातीय समीकरण को समझिए...
बृज क्षेत्र मथुरा ब्राह्मण, जाट, मुसलमान और वैश्य बहुल है. निकाय क्षेत्र में सवा लाख ब्राह्मण, करीब एक लाख वैश्य और उतने ही जाट वोटर्स हैं. कई इलाकों में मुसलमान वोटर्स भी प्रभावी हैं.
पूरे मथुरा नगर निगम में करीब 50 हजार मुस्लिम वोटर्स हैं, जो चुनाव में जीत-हार तय करने में बड़ी भूमिका निभा सकती है. पिछले चुनाव में मथुरा की सीट रिजर्व हो गई थी, जिसके बाद टिकट बंटवारे को लेकर खूब बवाल मचा था.
इस साल नए परिसीमन की वजह से यह सीट सामान्य कैटेगरी में रखा गया है. मथुरा-वृंदावन नगर निकाय का गठन साल 2017 में योगी सरकार ने किया था.
बीजेपी ने ब्राह्मण और वैश्य समीकरण को साधते हुए यहां से विनोद अग्रवाल को उम्मीदवार बनाया है. चुनाव का प्रभार विधायक और ब्राह्मण नेता श्रीकांत शर्मा को सौंपी गई है. सपा ने पहले तुलसी राम शर्मा को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन आरएलडी के कहने पर पार्टी ने राजकुमार रावत को समर्थन दे दिया है.
मथुरा फतह पर फोकस, 2022 में लगा था झटका
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में विपक्षी पार्टियों को मथुरा में बड़ा झटका लगा था. जिले की सभी 5 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी. सपा-आरएलडी गठबंधन को चुनाव में करारा झटका लगा था. सपा ने 2 और आरएलडी ने 3 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे.
बीएसपी भी इस चुनाव में मात खा गई थी और उसके दोनों सीटिंग विधायक चुनाव हार गए थे. कांग्रेस ने भी मथुरा में दिग्गज नेता प्रदीप माथुर को मैदान में उतारा था, लेकिन उन्हें भी हार ही नसीब हुआ.
कांग्रेस, सपा और आरएलडी तीनों के लिए मथुरा में जीत दर्ज करना बड़ी चुनौती है. मथुरा की पॉलिटिक्स पश्चिमी यूपी के कई जिलों को भी प्रभावित करती है. यही वजह है कि तीनों दल इस बार मथुरा में बीजेपी को मात देने में जुटी है.
मथुरा में अब तक जीत का स्वाद नहीं चख पाई है सपा
मथुरा कांग्रेस और चौधरी चरण सिंह का गढ़ रहा है. बीएसपी का भी एक वक्त यहां दबदबा होता था, लेकिन 2014 के बाद बीजेपी ने पकड़ बना ली. अयोध्या और काशी की तरह ही मथुरा धार्मिक नगरी है और यहां का जमीन विवाद का विषय कई बार चुनाव में बड़ा मुद्दा बन जाता है.
कृष्णनगरी मथुरा में कई प्रयोग करने के बाद भी अब तक समाजवादी पार्टी जीत का स्वाद नहीं चख पाई है. सपा को अब तक न तो किसी विधानसभा चुनाव में न ही लोकसभा में जीत हासिल हुई है. नगर निगम के पिछले चुनाव में भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा था.
सपा मथुरा जीतने के लिए कई प्रयोग कर चुकी है, लेकिन हर बार उसे असफलता ही मिली है. 2014 में मथुरा लोकसभा सीट से सपा अंतिम बार खुद के सिंबल पर उम्मीदवार उतारी थी. सपा के प्रत्याशी का इस चुनाव में जमानत जब्त हो गया था.
अखिलेश, जयंत और प्रियंका एक साथ, क्या आगे भी बनेगी बात?
मथुरा नगर निकाय चुनाव में अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और प्रियंका गांधी के एक साथ आने को लेकर सियासी गलियारों में हलचल तेज है. कयास लगाया जा रहा है कि मथुरा मॉडल अगर सफल हो गया तो क्या आगे सपा और आरएलडी के साथ कांग्रेस भी जुड़ सकती है?
सपा, आरएलडी और कांग्रेस के बड़े नेता फिलहाल इस सवाल पर चुप हैं. हालांकि, मथुरा में प्रचार करने आए कांग्रेस सांसद दीपेंद्र हुड्डा ने विपक्षी एकता की बात जरूर की. हुड्डा ने कहा कि कृष्ण की नगरी से विपक्षी एकता का सबसे बढ़िया संदेश जाएगा.
कांग्रेस, सपा और आरएलडी का यह प्रयोग अगर सफल हो गया तो आगे के चुनाव में भी इस तरह का प्रयोग देखा जा सकता है. हालांकि, कांग्रेस के साथ गठबंधन पर अखिलेश यादव पहले ही स्टैंड साफ कर चुके हैं. अखिलेश का कहना है कि कांग्रेस को गठबंधन की पहल करनी चाहिए.