बेटी बीजेपी से सांसद, खुद हारे चुनाव, फिर भी स्वामी प्रसाद मौर्य क्यों हैं सपा के लिए 'ट्रंप कार्ड'
2022 में फाजिलनगर सीट से स्वामी प्रसाद मौर्य 35 हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव हार चुके हैं. मौर्य की बेटी संघमित्रा अभी बदायूं से बीजेपी सांसद हैं. इसके बावजूद सपा के लिए मौर्य क्यों जरूरी है?
रामचरित्र मानस पर विवादित बयान देने वाले कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को लेकर समाजवादी पार्टी बैकफुट पर है. कार्रवाई की मांग को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में शिवपाल सिंह यादव ने कहा कि मौर्य को धार्मिक मुद्दे से दूर रहने के लिए कहा गया है.
मानस विवाद के बाद सपा के भीतर ही स्वामी प्रसाद मौर्य पर कार्रवाई की मांग तेज हो गई थी. मौर्य पर तो सपा ने कोई एक्शन नहीं लिया, उलट कार्रवाई की मांग करने वाली दो महिला नेता रोली तिवारी और रिचा सिंह को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया. अखिलेश यादव के इस फैसले पर कई लोगों ने सवाल भी उठाया.
सपा से निलंबित नेता रिचा सिंह ने सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखकर कहा है कि पार्टी ने बोलने के लिए गाइड लाइन जारी किया है, लेकिन मानस पर बयान देने वाले दलबदलु नेता मौर्य पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है. आखिर अखिलेश यादव की मजबूरी क्या है?
राजनीतिक विश्लेषक उस वक्त अचंभित रह गए, जब कार्रवाई के बजाय अखिलेश यादव ने मौर्य को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त कर दिया. बीजेपी ने मौर्य की नियुक्ति के बाद अखिलेश यादव पर हिंदू धर्म का अपमान करने का आरोप लगाया.
स्वामी प्रसाद मौर्य ने क्या कहा था?
23 जनवरी को एक इंटरव्यू के दौरान स्वामी प्रसाद मौर्य ने तुलसीदास रचित रामचरित्र मानस पर सवाल उठाया था. मौर्य ने कहा कि रामचरितमानस में दलितों और महिलाओं का अपमान किया गया है. तुलसीदास ने इस ग्रंथ को अपनी खुशी के लिए लिखा था. करोड़ों लोग इसे नहीं पढ़ते हैं और यह बकवास है.
मौर्य ने रामचरित्र मानस के एक अंश का जिक्र करते हुए कहा- रामचरित्र मानस में लिखा है कि ब्राह्मण भले ही दुराचारी, अनपढ़ हो, लेकिन वह ब्राह्मण है. ब्राह्मण को तुलसीदास ने पूजनीय कहा गया है, लेकिन शूद्र कितना भी ज्ञानी हो. उसका सम्मान नहीं करने के लिए कहा है. यह हिंदू धर्म नहीं है.
लोकदल से राजनीतिक करियर की शुरुआत
प्रतापगढ़ में जन्मे 69 साल के स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपनी राजनीतिक करियर की शुरुआत साल 1980 में की थी. 1980 में मौर्य को युवा लोकदल में प्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया. मौर्य 1981 तक इस पद पर रहे और फिर महामंत्री बनाए गए.
1989 से 1991 तक मौर्य यूपी लोकदल में मुख्य सचिव रहे और फिर पाला बदल कर जनता दल में शामिल हो गए. मौर्य यहां पर करीब 5 साल तक रहे. इस दौरान यूपी जनता दल ने मौर्य को प्रदेश महासचिव की जिम्मेदारी सौंपी.
गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती की लहर चल रही थी. मौर्य भी मौका देख 1996 में हाथी पर सवार हो गए. बसपा में शामिल होने के बाद मौर्य मायावती की राजनीति ढांचे में फिट होते चले गए.
बसपा में जाने के बाद मौर्य का राजनीतिक कद लगातार बढ़ता गया. वे रायबरेली के डलमऊ और कुशीनगर के पडरौना सीट से विधायक बने.
मौर्य यूपी विधानसभा में दो बार नेता प्रतिपक्ष, मायवती सरकार में मंत्री रह चुके हैं. इसके अलावा बसपा के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी निभा चुके हैं.
स्वामी प्रसाद ओबीसी समुदाय के मौर्य जाति से आते हैं और शुरुआत से ही दलित और पिछड़ों की राजनीति करते रहे हैं.
बेटी बीजेपी से लोकसभा सांसद, बेटा हार चुके हैं चुनाव
2019 में स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा मौर्य ने अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को बदायूं सीट से हराया था. स्वामी प्रसाद के आने के बाद संघमित्रा के बीजेपी छोड़ने को लेकर भी अटकलें लग रही थी.
हाल ही में संघमित्रा ने इसका खंडन भी किया. उन्होंने कहा कि 2024 में बदायूं से बीजेपी टिकट पर ही चुनाव लड़ूंगी. मैंने इसके लिए तैयारी शुरू कर दी है. संघमित्रा ने मानस विवाद में पिता के बयान से पल्ला भी झाड़ लिया.
पिता स्वामी प्रसाद जहां एक ओर सरकार और संघ पर निशाना साध रहे हैं. वहीं दूसरी ओर बेटी संघमित्रा पार्टी के प्रति वफादारी दिखाते हुए संघ और बीजेपी के बड़े नेताओं के साथ पोस्टर शेयर कर रही हैं.
स्वामी प्रसाद मौर्य ने 2019 में रायबरेली के ऊंचाहार सीट से बेटे उतकृष्ट मौर्य को भी बीजेपी से टिकट दिलवाया था, लेकिन वे करीब 2000 वोटों से हार गए.
2022 में सीट बदलना पड़ा भारी, खुद भी हारे चुनाव
बीजेपी छोड़ने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य समर्थकों के साथ सपा में शामिल हो गए. सपा ने कुशीनगर के पडरौना से उनकी सीट बदल दी. मौर्य पिछड़े और मुस्लिम बहुल फाजिलनगर से चुनावी मैदान में उतरे. हालांकि, अखिलेश की इस रणनीति में सपा के कद्दावर नेता इलियास ने ही पानी फेर दिया.
इलियास बसपा के टिकट से मैदान में उतर गए. बीजेपी ने स्वामी के मुकाबले सुरेंद्र कुशवाहा को फाजिलनगर से टिकट दिया. चुनाव में मौर्य को 35 हजार वोटों से हार का सामना करना पड़ा. इलियास को 28 हजार से ज्यादा वोट मिले. विधानसभा चुनाव हारने के बाद अखिलेश ने स्वामी प्रसाद को विधानपरिषद भेज दिया.
बेटी बीजेपी से सांसद और खुद चुनाव हार गए. इसके बावजूद सपा के लिए ट्रंप कार्ड क्यों हैं स्वामी? विस्तार से जानते हैं...
1. मौर्य वोटर का 13 जिलों में दबदबा- उत्तर प्रदेश में मौर्य वोटर्स करीब 8 फीसदी के आसपास हैं. सीटों के हिसाब से देखें तो यूपी विधानसभा में मौर्य वोटरों का करीब 100 सीटों पर प्रभाव है. राज्य के इटावा, एटा, फिरोजाबाद, हरदोई, मैनपुरी, फर्रुखाबाद, कन्नौज, झांसी, ललितपुर, बदायूं समेत 13 जिलों में मौर्य जातियों का दबदबा है.
लोकसभा के 15 सीटों पर मौर्य वोटर जीत और हार में बड़ी भूमिका निभाते हैं. यूपी में यादव और कुर्मियों के बाद ओबीसी जातियों में मौर्य की आबादी सबसे अधिक है. यूपी के सियासी गलियारों में स्वामी प्रसाद को मौर्य का सबसे बड़ा नेता माना जाता है.
यूपी चुनाव 2017 में मौर्य जाति से आने वाले 18 विधायक सदन पहुंचे, जिसमें अधिकांश बीजेपी के टिकट से चुनाव जीते थे. 2022 में मौर्य जाति के 14 विधायक सदन पहुंचने में कामयाब रहे. इनमें 12 बीजेपी टिकट से और 2 सपा टिकट से जीत दर्ज की.
2. 5 जिलों में सियासी पकड़- रायबरेली, बदायूं, कुशीनगर और प्रतापगढ़ जिले में स्वामी प्रसाद मौर्य की सीधी पकड़ है. रायबरेली और कुशीनगर से खुद चुनाव लड़ चुके हैं, जबकि बदायूं से बेटी को जितवा चुके हैं. प्रतापगढ़ मौर्य का गृह जिला है और इलाहाबाद से उन्होंने राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी.
इन पांचों जिले के लोकसभा सीट पर अभी बीजेपी और कांग्रेस का कब्जा है. 2024 में अखिलेश के 6 में से 5 सीट हर हाल में जीतने की तैयारी में जुटे हैं. स्वामी इस अभियान में सबसे फिट हैं. इसलिए अखिलेश उनके खिलाफ बयान देने वाले नेताओं पर कार्रवाई कर रहे हैं.
स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा के प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं. बसपा के शासनकाल में मायावती के बाद मौर्य का ही दबदबा रहता था. ऐसे में बसपा जिन सीटों पर मजबूत है, उसके समीकरण से भी मौर्य वाकिफ हैं.
यूपी में लोकसभा की ऐसी 20 सीटें हैं, जहां बसपा अभी भी काफी मजबूत है. स्वामी के सहारे इन सीटों को भी पाने की जुगत अखिलेश लगा रहे हैं.
3. 85 बनाम 15 की राजनीति में फिट मौर्य- हाल ही में अखिलेश यादव ने सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सूची जारी की थी. सूची में 15 महासचिव का नाम जारी किया गया था, जिसमें एक भी अपर कास्ट से नहीं थे. दरअसल, इसके पीछे अखिलेश यादव की नई '85 बनाम 15' की स्ट्रैटजी को वजह माना जा रहा है.
2022 में हार के बाद अखिलेश यादव गैर यादव ओबीसी और दलितों को भी साधने में जुटे हैं. इसके लिए अखिलेश ने मायावती की पार्टी के कई नेताओं को सपा में जोड़ा है. यूपी में दलित, पिछड़ा और मुसलमानों की आबादी 80 फीसदी के आसपास है.
कांशीराम से राजनीति सीखने वाले मौर्य अखिलेश की इस रणनीति में सबसे फिट नेता हैं. ऐसे में 2024 तक मौर्य को तवज्जो मिलना लाजिम है.
4. मुद्दा और माहौल बनाने में माहिर- स्वामी प्रसाद मौर्य अपने बयानों के जरिए मुद्दा तय करने और माहौल बनाने में माहिर हैं. बसपा शासन में जब भी किसी मुद्दे पर मायावती घिरती थीं, तो उस वक्त मौर्य मुद्दे को डायवर्ट कर देते थे.
मायावती शासन में सपा नेता मुलायम सिंह और कांग्रेस के राहुल गांधी के खिलाफ सबसे ज्यादा आक्रामक स्वामी प्रसाद मौर्य ही रहते थे.
बयानों से सुर्खियों में रहने वाले मौर्य आम तौर पर छोटी रैली और जनसभा के जरिए रैली को संबोधित करते हैं. यूपी पॉलिटिक्स में मौर्य को मौसम वैज्ञानिक के नाम से भी जाना जाता है. 2017 में ओबीसी समुदाय के बीच मौर्य ने बीजेपी के पक्ष में खूब माहौल बनाया.
बीजेपी को इसका फायदा भी मिला और पार्टी ने चौथे नंबर से सीधे सरकार बना ली. अखिलेश इसलिए मौर्य का साथ नहीं छोड़ रहे हैं.