पूजा स्थल में देव प्रतिमाएं किस प्रकार की होनी चाहिए ?. इसको लेकर हर किसी के मन में कोई न कोई सवाल होता ही है। भागवत पुराण में भगवान की आठ प्रकार की प्रतिमाओं की चर्चा है। जैसे- पत्थर की, लकड़ी की, धातु की, चंदन आदि लेप की, चित्रमयी, मिट्टी या बलूकामयी, मनोमयी और मणिमयी, ये भगवान की आठ प्रकार की प्रतिमा कहीं गई हैं।
भविष्य पुराण में तो यहा तक कि कहा गया है कि कोई प्रतिमा उपलब्ध न हो,तो सुपारी आदि फलों अथवा चावल के ढेर में प्रतिमा की कल्पना करके पूजा करनी चाहिए। इसका भी लाभ होता है। हर घर में देवी- देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित होती हैं, जो अलग- अलग धातुओं की बनी होती है। विभिन्न धातुओं से बनी मूर्तियों का फल भी अलग होता है।
लकड़ी की प्रतिमा काम प्रदायिनी होती है, जबकि स्वर्ण की प्रतिमा भक्ति और मुक्ति देने वाली होती है। चांदी की प्रतिमा स्वर्ग प्रदान करने वाली, तांबे की मूर्ति आयुवर्धक, कांसे की मूर्ति अनेक प्रकार की आपत्तियों को नष्ट करने वाली मानी गई है। वहीं मिट्टी की प्रतिमा सुख- संपत्ति प्रदान करने वाली एवं कल्याणकारी होती है।
धर्म ग्रथों के अनुसार, यदि आपके पूजा घर में धातु की मूर्ति हो और वह छह अंगुल से छोटी हो, तो प्रतिदिन स्नान कराना आवश्यक है। सिर्फ चित्र का भी आह्वान भी किया जा सकता है। यदि आप मंदिर कार्पेंटर से बनवा रहे हैं तो खैर, सागौन, अर्जुन, देवदार, अशोक, महुआ और आम की लकड़ी से बना मंदिर लाभकारी होता है।
बरगद, गूलर, नीम, कैथा, चंपक, घव, कोविदार आदि का प्रयोग घर के अंदर सर्वथ वर्जित है। मंदिर बनाने में इनका प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। आजकल फर्नीचर बनाने में बबूल की लकड़ी का इस्तेमाल इसलिए ज्यादा होने लगा है क्योंकि अन्य लकड़ियां बहुत महंगी होती जा रही हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि बबूल और इमली की लकड़ी में निगेटिव एनर्जी का वास होता है।
इन बातों का रखें ध्यानः
- मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा घर पर न करें
- अपनी सुविधानुसार भगवान को कभी सजीव और निर्जीव न मानें
- भाव प्रधान उपासना होनी चाहिए
- कैलेन्डर नहीं लटकाने चाहिएं