योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के 21वें मुख्यमंत्री हैं। मुख्यमंत्रियों की इस लंबी फेहरिस्त में केवल दो महिलाएं ही सीएम की कुर्सी पर बैठ सकी हैं, जबकि प्रदेश में आजादी के पहले से ही महिलाओं की राजनीति में सक्रियता रही है। यहां तक की देश की पहली और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी भी यूपी से ही आती हैं, जिन्होंने लंबे वक्त तक देश की हुकूमत पर राज किया। इसके बावजूद प्रदेश स्तर पर महिलाओं का नेतृत्व उभरकर नहीं आ सका।


सोनिया, मेनका से लेकर मायावती तक...


सोनिया गांधी, मेनका गांधी, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी यूपी से ताल्लुक रखती हैं। प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी यूपी के रास्ते ही राजनीति में एंट्री मारी। इसके बावजूद अगर ये कहा जाए कि प्रदेश पैमाने पर महिलाओं का टाइम कब आएगा? तो ये कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी। इस रिपोर्ट के जरिए एक नजर डालते हैं प्रदेश की राजनीति में महिला नेतृत्व के सफर पर।


CM की कुर्सी के लिए आजतक सामने नहीं आया कोई तीसरा चेहरा


बात देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की सत्ता की कुर्सी पर बैठने वाले चेहरों की करी जाए तो, प्रदेश की बागडोर को संभालने वाली सुचेता कृपलानी (यूपी की पहली महिला मुख्यमंत्री) और मायावती के बाद आजतक महिलाओं में कोई तीसरा नाम या चेहरा मुख्यमंत्री की रेस में सामने नहीं आया है। कृपलानी और मायावती न केवल राज्य की मुख्यमंत्री रहीं, बल्कि दोनों ने संसद में भी प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। ऐसा नहीं है कि इनके अलावा किसी अन्य महिला ने राजनीतिक स्तर पर नेतृत्व करने की पहल न की हो, लेकिन कृपलानी और मायावती के स्तर पर न तो उनका व्यापक प्रभाव रहा और न ही वे लंबे समय तक सियासी गलियारों में सक्रिय रह सकीं।


फूलन देवी...समर्पण से राजनीति तक


चंबल में दहशत का दूसरा नाम रहीं फूलन देवी के डकैत बनने की कहानी किसी के भी रोंगटे खड़ी कर सकती है। एक डैकत से सांसद बनने तक का सफर भी आसान नहीं था। बीहड़ में बंदूक का राज चलाने के बाद आत्मसमर्पण कर फूलन ने जेल काटी और फिर राजनीति में एंट्री मारी। आमतौर पर फूलन देवी को डकैत के रूप में गरीबों का रॉबिनहुड या कहे कि पैरोकार समझा जाता था। हालांकि, पुलिस प्रशासन की नजरों में वो सिर्फ एक डैकत थी। फूलन का जन्म यूपी में जालौन के घूरा का पुरवा में एक मल्लाह के घर हुआ था। जेल से रिहा होने के बाद 1996 में फूलन ने प्रदेश की भदोही लोकसभा सीट से चुनाव जीता और संसद पहुंचीं। उन्हें राजनीति में लंबी रेस का घोड़ा समझा जा रहा था, लकिन 25 जुलाई 2001 को फूलन देवी की दिल्ली में उनके आवास पर हत्या कर दी गई।


गुलाबी गैंग की संपत भी उतना नहीं चपक रखीं


कुछ इसी तरह गुलाबी गैंग की संस्थापक संपत पाल भी राजनीति के क्षितिज तक पहुंचने में सफल नहीं रह सकीं। गुलाबी गैंग के चलते संपत ने खूब सुर्खियां बटोरीं, लेकिन सियासत के गलियारों के शोरगुल में उनका नाम वो मुकाम हासिल न कर सका।  संपत पाल ने साल 2012 में पहली बार चुनाव लड़ा था, लेकिन वह हार गई थीं। 2017 के विधानसभा चुनाव में संपत कांग्रेस की टिकट पर मनिकपुर सीट से चुनाव लड़ीं और इस बार भी उन्हें हार झेलनी पड़ी। बता दें कि गुलाबी गैंग महिलाओं का एक ऐसा समूह है, जो गुलाबी साड़ी पहनता है और अपने तरीके से महिलाओं के सम्मान की जंग लड़ता है।


महिलाओं को टिकट देने में उदार नहीं दल


इसके अलावा राजनीति दल भी महिलाओं को टिकट देने में उदर नहीं हैं। महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का शोरगुल तो खूब सुनाई पड़ता है, लेकिन धरातल पर महिलाओं पर भरोसा जताने में खुद राजनीतिक दल भी पीछे रहे हैं।


संसद में महिलाओं की भागीदारी का आकलन


16वीं लोकसभा में स्थिति की बात करें तो यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 14 पर महिलाओं को प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। रायबरेली से कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी चुनाव लड़ीं और जीती, कन्नौज से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव ने जीत दर्ज की। इसके अलावा कैराना में हुए उप चुनाव में रालोद की तबस्सुम ने परचम लहराया। इसके अलावा बाकी सभी सीटों पर बीजेपी का कब्जा है।


अब बात अगर यूपी से भाजपा की टिकट पर संसद पहुंचने वाले महिलाओं की करें तो गांधी परिवार की छोटी बहू मेनका गांधी मोदी सरकार में मंत्री हैं, जो पीलीभीत से जीतकर संसद पहुंचीं। वहीं, बीजेपी की सहयोगी पार्टी अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने मिर्जापुर से जीतकर दिल्ली का रास्ता तय किया। इन्हें भी मोदी सरकार में मंत्री बनाया गया। इनके अलावा बहराइच की सांसद सावित्री बाई फुले, भले ही बीजेपी की टिकट पर जीतकर संसद पहुंचीं। लेकिन, इस पूरे कार्यकाल के दौरान भाजपा नेतृत्व के खिलाफ उनके बगावती स्वर रहे। अंतत: 2019 चुनाव से पहले फुले ने बीजेपी को अलविदा कह कांग्रेस का हाथ थाम लिया।


2014 में राजनीति में अचानक अवतरित हुईं ये दो महिलाएं


वहीं, 2014 की मोदी लहर में यूपी की राजनीति में अचानक अवतरित हुईं दो महिलाएं- अंजू बाला और प्रियंका सिंह रावत, जो जीतीं और संसद भी पहुंचीं। लेकिन 2019 में उनका लोकसभा पहुंचने का सपना अधूरा रहा गया। भाजपा ने मिश्रिख लोकसभा क्षेत्र की मौजूदा सांसद अंजू बाला का टिकट काटकर बीएसपी से आए अशोक रावत को अपना प्रत्याशी बनाया, तो बाराबंकी लोकसभा सीट से मौजूदा सांसद प्रियंका सिंह रावत की जगह उपेंद्र रावत को चुनावी मैदान में उतारा है।


उमा, हेमा, जया....केंद्र में उभरीं...प्रदेश में रहीं फीकीं


इनके अलावा राम मंदिर आंदोलन से सियासत की सीढ़ियां चढ़ीं उमा भारती ने भी मध्य प्रदेश के बाद यूपी की झांसी सीट का प्रतिनिधित्व किया और रिकॉर्ड जीत दर्ज की, लेकिन प्रादेशिक स्तर पर उमा न उभर सकीं।


इसी तरह सिने जगह की मशहूर अदाकाला हेमा मालिनी भी मुथरा से भगवा फरहाने में सफल रहीं। हालांकि, मुख्यमंत्री की रेस में कभी उनका नाम  सामने नहीं आया।


2009 में 80 में से 13 पहुंचीं संसद


2009 के आम चुनाव में 80 सीटों में से 13 सीटों पर महिलाओं ने जीत दर्ज की और संसद पहुंचीं। उस वक्त भी सोनिया गांधी, मेनका गांधी, डिंपल यादव और तबस्सुम ने संसद में अपने-अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। सिने जगल की जया प्रदा भी 2009 में रामपुर से जीतकर तीसरी बार संसद पहुंची थीं। इसी तरह प्रतापगढ़ में कालाकांकर राजघराने की रत्ना सिंह तीसरी बार चुनकर संसद पहुंचीं थीं। 2009 में अन्नू टंडन को उन्नाव और सारिका बघेल को हाथरस की जनता से संसद पहुंचाया था।


यूपी की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं सुचेता कृपलानी


सुचेता कृपलानी का जन्म भले ही पंजाब में हुआ था, लेकिन अपने कुशल नेतृत्व की वजह से यूपी के मतदाताओं ने उनपर भरोसा जताते हुए उन्हें प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का खुशी दी।




  • बीएचयू में इतिहास की शिक्षक रहीं सुचेता कृपलानी

  • 1963 से 1867 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं

  • सुचेता 1948 में विधानसभा की सदस्य चुनी गईं

  • 1952, 1957 और 1967 में लोकसभा में भी रहीं।

  • 1967 में गोंडा का प्रतिनिधित्व किया था।


चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रहीं मायावती


सुचेता कृपलानी के अलावा बीएसपी सुप्रीमो मायावती ही केवल ऐसी महिला रहीं, जो प्रदेश पैमाने पर अपना और पार्टी का विस्तार करने में सफल रहीं। मायावती चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रहीं। मायावती ने यूपी को मजबूत विपक्ष भी दिया । राजनीति में आने से पहले की बात करें तो मायावती कलेक्टर बनना चाहती थीं और इसी के तहत उन्होंने अपनी पढ़ाई की। हालांकि हालात बदले और उनके कदम राजनीति को ओर बढ़ गए।




  • 1980 के दशक में मायावती कांशीराम से जुड़ीं। 1984 में कांशीराम ने जब बहुजन समाजवादी पार्टी बनाई तो मायावती उनकी कोर मेंबर थीं।

  • 1989 में वो पहली बार बिजनौर से जीतकर संसद पहुंचीं।

  • 1993 वो साल था जब सपा के साथ बसपा ने गठबंधन कर उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल की। तब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भले ही मुलायम सिंह बैठे थे, लेकिन सत्ता की चाबी मायावती के हाथ में थी। लिहाजा गठबंधन लंबा नहीं चल रखा और 1995 ने बसपा ने समर्थन वापस ले लिया।

  • 1995 में गठबंधन टूटने के बाद भाजपा के सहयोग से मायावती पहली बार यूपी की मुख्यमंत्री बनीं। सुचेता के बाद  वे यूपी की दूसरी महिला मुख्यमंत्री बनीं।

  • 1997 में वो दोबारा मुख्यमंत्री बनीं। इसके बाद 2002 में वह बीजेपी के समर्थन से तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठीं।

  • 2007 में मुलायम सरकार के खिलाफ पूर्ण बहुमत हासिल कर सत्ता हासिल की।

  • मायावती बसपा की अध्यक्ष हैं।

  • राजनीति में आने से पहले मायावती एक सरकारी स्कूल में टीचर थीं।

  • 2014 के चुनाव में मोदी लहर ने बसपा का प्रदेश में सुपड़ा ही साफ कर दिया। उनकी पार्टी एक भी सीट जीत नहीं सकी।

  • 2019 के चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर बसपा चुनावी मैदान में बीजेपी का विजय रथ रोकने के लिए साथ आए हैं।


 


ज्यादातर महिलाएं विरासत की छाप लेकर बढ़ीं आगें


यूपी की सियायस में ज्यादातर महिला नेतृत्व अपनी विरासत को लेकर आगे बढ़ी हैं। संसद पहुंचीं 90 फीसदी महिला पिता, पति या फिर किसी करीबी रिश्तेदार के नाम पर चुनी गईं ।




  • आयरन लेडी कही जाने वाली देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी अपने पिता जवाहर लाल नेहरू की विरासत की छाप लेकर आगे बढ़ी।

  • सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी का नाम भी इसी फेहरिस्त में हैं।

  • हालांकि गांधी परिवार की छोटी बहू मेनका गांधी ने जरूर सत्ता का रास्ता तय करने के लिए संघर्ष किया और पति संजय गांधी की मौत के बाद मेनका ने इंदिरा गांधी से अलग होकर अपनी नई राय बनाई। संजय विचार मंच बनाकर परिवार के खिलाफ ही आंदोलन छोड़ दिया। हालांकि बाद में उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया और वर्तमान में केंद्र की सरकार में मंत्री भी हैं।

  • विरासत की छाप से अनुप्रिया पटेल भी अछूती नहीं है। अपना दल के संस्थापक डॉ.सोनलाल पटेल के निधन के बाद पार्टी की कमान उनकी पत्नी कृष्णा पटेल के संभाली। हालांकि 2014 के चुनाव के बाद पार्टी बंटवारे का शिकार बनी। एक धड़ा बेटी अनुप्रिया पटेल के साथ खड़ा है तो दूसरा धड़ा मां कृष्णा पटेल के साथ प्रदेश की सरकार में भागीदार है।