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अपने ही विधायक ने योगी सरकार के सामने खड़ी कर दी है मुश्किल, समझिए कैसे फंसी हुई है यूपी सरकार?

यूपी की राजनीति में अब तक विपक्षी दल ही अपने अपने तरीके से ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अब बीजेपी ने भी कोशिशें शुरू कर दी है.

लखनऊ: उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश अपने अपने चरम पर जाती दिख रही है. सबको लग रहा है कि ब्राह्मण उसके साथ आ जाए तो बात बन जाए. यूपी की राजनीति में अब तक विपक्षी दल ही अपने अपने तरीके से ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अब बीजेपी के नेता भी सरकार से जवाब मांगने की कोशिश करने लगे हैं.

विधानसभा के 20 अगस्त से शुरू हो रहे सत्र में सुलतानपुर जिले की लम्भुआ सीट से बीजेपी विधायक देवमणि द्विवेदी ने सरकार से सदन में सवाल पूछा है. देवमणि द्विवेदी ने अपने सवाल में पूछा है कि बीते तीन वर्ष में कितने ब्राह्मणों की हत्या हुई है.

द्विवेदी ने विधानसभा में नियम 56 के अंतर्गत यूपी के गृह मंत्री से जवाब मांगते हुए पूछा है कि तीन वर्ष के कार्यकाल में कितने ब्राह्मणों की हत्या हुई है? हालांकि जब तक विधायक का प्रश्न विधानसभा में स्वीकार नहीं किया जाता, तब तक विधानसभा नियमावली के मुताबिक़ इसे विधानसभा में पूछे जाने वाला प्रश्न नहीं कह सकते लेकिन विधायक देवमणि द्विवेदी ने ये सवाल पूछे जाने की कोशिश की फोन पर पुष्टि की है.

पूरा मामला आपको बताएं, उसके पहले आपको ये समझना जरूरी है कि आख़िर सभी राजनीतिक दल क्यों ब्राह्मणों को ही लुभाने की कोशिश में लगे हैं. असल में यूपी में विधानसभा का चुनाव 2022 के फरवरी-मार्च में होना है. लगभग डेढ़ साल का समय चुनाव में बचा है. ऐसे में सभी राजनीतिक दल जातिगत समीकरण सेट करने में लग गए हैं.

यूपी की राजनीति में ब्राह्मणों की भूमिका हमेशा से प्रमुख रही है. माना जाता है कि ब्राह्मणों की आबादी प्रदेश में 10 फ़ीसदी है. हालांकि कुछ ब्राह्मण नेता इस जाति की आबादी 15 प्रतिशत होने का दावा करते हैं.

ख़ास बात ये है कि ब्राह्मण ऐसी जाति मानी जाती है जो दूसरी जातियों के वोटों को भी प्रभावित कर अपने साथ जोड़ लेती है. ऐसे में ब्राह्मणों को लुभाने में सभी दल लग गए हैं. चाहे वो विपक्ष की समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी या कांग्रेस हो या सत्तारूढ़ बीजेपी.

अब वापस ज़रा इस दस्तावेज़ पर आते हैं जो बीजेपी विधायक देवमणि द्विवेदी ने सवाल पूछने के लिए लिखी है. विधयाक ने सवाल किया है कि यूपी में 2017 से लेकर अब तक कितने ब्राह्मणों की हत्या हुई है? इन हत्याओं को अंजाम देने वाले कितने लोग पकड़े गए हैं? प्रदेश सरकार इनमें से कितने लोगों को सजा दिलाने में सफल रही है? ब्राह्मणों की सुरक्षा को लेकर सरकार की रणनीति क्या है? क्या ऐसी हालत में सरकार ब्राह्मणों को शस्त्र लाइसेंस देने में प्राथमिकता देगी? अभी तक इस सरकार के कार्यकाल में कितने ब्राह्मणों ने शस्त्र लाइसेंस के लिए आवेदन किया है और कितनों को लाइसेंस जारी हो गया है?

इन सभी सवालों को अगर सदन में स्वीकार किया जाता है, जिसकी संभावना बेहद कम है, तो ज़ाहिर है प्रदेश सरकार की मुश्किलें बढ़ जाएंगी क्योंकि इन आंकड़ों का इस्तेमाल न सिर्फ ब्राह्मण नेता बल्कि सभी राजनीतिक दल उठाएंगे और किसी भी तरह योगी सरकार को ब्राह्मणों का विरोधी साबित करने की पुरज़ोर कोशिश करेंगे.

अब आपके ज़हन में सवाल उठ रहा होगा कि किस राजनीतिक दल ने ब्राह्मणों को लुभाने के लिए क्या क्या किया. तो इसकी शुरुआत समाजवादी पार्टी ने की. सपा सरकार में मंत्री रहे पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और प्रवक्ता अभिषेक मिश्रा ने सबसे पहले घोषणा की कि वो भगवान परशुराम की 108 फुट की मूर्ति लगाएंगे.

समाजवादी पार्टी का ब्राह्मण चेहरा बनने को आतुर पूर्व मंत्री अभिषेक मिश्रा ने लखनऊ में 108 फुट की परशुराम की मूर्ति लगाने की घोषणा करने के साथ ख़ुद को सपा में जनेश्वर मिश्रा और माता प्रसाद पांडेय के बाद एक स्थापित युवा ब्राह्मण नेता बनने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि 108 फुट की प्रतिमा के लिए वो 4 अलग-अलग शहरों में जाकर मूर्तिकारों से मिल चुके हैं. अब अगर सरकार ने अनुमति दी तो मूर्ति लगाने का काम अगले कुछ महीनों में शुरू हो सकता है.

अभिषेक मिश्रा को पता है कि उनके दावे पर सरकार उन्हें मूर्ति लगाने नहीं देगी, इसलिए वो ख़ुद कहते हैं कि अगर सरकार ने रोका तो वो इसके ख़िलाफ़ प्रदेशव्यापी विरोध दर्ज कराएंगे. भगवान परशुराम की उपेक्षा करने का बीजेपी पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि विष्णु के छठवें अवतार परशुराम को भगवान की जगह महापुरुष बताकर बीजेपी ने परशुराम जयंती की छुट्टी रद्द कर दी.

अभिषेक मिश्रा ने कहा कि समाजवादी पार्टी ने परशुराम को भगवान माना है और इसलिए उनकी जयंती पर छुट्टी घोषित की थी. अभिषेक मिश्रा को संशय है कि सरकार उन्हें मूर्ति लगाने से रोक सकती है, इसलिए वो अभी से कह रहे हैं कि अगर मूर्ति लगाने से रोका गया तो वो विरोध और धरने का सहारा लेंगे.

भगवान और महापुरुषों का नाम लेकर जातिगत समीकरण साधने की सपा की कोशिश के तहत भगवान परशुराम की मूर्ति लगाने की घोषणा के तुरंत बाद बसपा प्रमुख मायावती ने भी अपनी सरकार आने पर भगवान परशुराम समेत प्रमुख महापुरुषों की मूर्ति लगाने का ऐलान अभी से कर दिया.

मायावती ने तो ये तक घोषणा कर दी कि वो जो मूर्ति लगाएंगी वो सपा की मूर्ति यानी 108 फुट से भी बड़ी होगी.  साथ ही मायावती ने न सिर्फ भगवान परशुराम बल्कि अन्य महापुरुषों के नाम के सर्वजनकी भवन और मूर्ति लगाने की भी घोषणा कर दी.

बस सपा की घोषणा से मायावती का बयान इस मायने में अलग रहा कि सपा ने अभी मूर्ति लगाने की बात कही है लेकिन मायावती अपनी सरकार आने पर मूर्ति लगाने की बात कह रही हैं. आपको याद होगा कि बहनजी ने 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित ब्राह्मण के फार्मूले पर चुनाव लड़ा था. सालों से पूर्ण बहुमत की सरकार को तरस रहे यूपी को बहनजी के फॉर्मूले की वजह से लंबे अंतराल के बाद पूर्ण बहुमत की सरकार मिली थी और दलितों के साथ ब्राह्मणों का साथ मिलते ही बसपा को सत्ता मिली और बहनजी मुख्यमंत्री बन गईं.

अब समाजवादी पार्टी और बसपा ने परशुराम के नाम पर मूर्ति लगाई तो यूपी में अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में लगी कांग्रेस कैसे पीछे रहे. सपा और बसपा की घोषणा के बाद कांग्रेस का भी परशुराम प्रेम अचानक जग गया. कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद ने एक चिट्ठी लिखी और योगी सरकार से मांग कर दी कि भगवान परशुराम की जयंती पर जो छुट्टी घोषित थी, उसे बहाल किया जाए. असल में योगी सरकार ने महापुरुषों के नाम पर होने वाली छुट्टियों को रद्द कर उस दिन संबंधित महापुरुष से जुड़े कार्यक्रम कराने की घोषणा की थी. ऐसे में यूपी में सभी महापुरुषों के नाम पर होने वाली छुट्टी को आधार बनाकर कांग्रेस ने योगी सरकार से मांग कर ब्राह्मणों को वापस कांग्रेस के साथ लाने की कोशिश की है.

अब सोचिए जब सभी विपक्षी दल भगवान परशुराम के नाम के सहारे राजनीति कर रहे हों तो राम के नाम की राजनीति करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी कैसे पीछे रहे, इसलिए अब बीजेपी कह रही है कि ज़रूरत हुई तो वो भी परशुराम की मूर्ति लगाएगी. विपक्ष तो परशुराम को ढाल बना रहा है लेकिन भगवान राम के सहारे हिंदुत्व कार्ड खेलने में लगी बीजेपी भी अब परशुराम की मूर्ति लगाने की बात कह रही है.

बीजेपी का ब्राह्मण चेहरा और राज्य सरकार में बेसिक शिक्षा मंत्री डॉ सतीश द्विवेदी ने कहा कि ज़रूरत हुई तो उनकी सरकार भी परशुराम की मूर्ति लगाने का काम करेगी. एबीपी न्यूज़ से बातचीत में सतीश द्विवेदी ने कहा कि बीजेपी जाति की राजनीति नहीं करती. भगवान राम की मूर्ति और मंदिर का ज़िक्र करते हुए द्विवेदी ने जैसे ही कहा कि ज़रूरत हुई तो पर्यटन विभाग विचार करेगा कि क्या करना है, वैसे ही ज़ाहिर हो गया कि ब्राह्मणों को मिलाने की क़वायद में बीजेपी भी पीछे नहीं है.

यूपी में ब्राह्मणों को ही रिझाने की इतनी पुरज़ोर कोशिश आख़िर क्यों हो रही है. इस सवाल का जवाब ढूंढते हुए हम वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा के पास पहुंचे. योगेश मिश्रा बीते 3 दशक से यूपी की राजनीति को गहराई से देख समझ रहे हैं. उन्होंने बताया कि ब्राह्मण वोट तुलनात्मक रूप से कम होने के बावजूद प्रभावी जाति होने की वजह से सभी ब्राह्मण को मिलाना चाहते हैं.  2007 में दलितों के साथ ब्राह्मणों को मिलाने का मायावती का फॉर्मूला हिट साबित हुआ था जब लंबे समय बाद यूपी में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला था. इसके बाद 2012 में समाजवादी पार्टी ने कोई गठजोड़ नहीं बनाया लेकिन मायावती की सरकार में उपेक्षा की शिकायत होने की वजह से ब्राह्मण सपा के साथ गए और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन गए.

इसके बाद ब्राह्मण बीजेपी के साथ गए तो हाशिए पर पड़ी बीजेपी मज़बूती के साथ सरकार के साथ आई. हाल ही में विकास दूबे एनकाउंटर मामले को लेकर अंदरखाने में ये बात फैलाई जा रही है कि योगी सरकार ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ है. ऐसे में विकास दूबे का घर गिराना, उसके बेटे और पत्नी की ज़मीन पर पड़ी तस्वीर जैसी घटनाओं ने एक संदेश ज़रूर दिया.  योगेश मिश्रा का मानना है कि ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश सब कर रहे हैं, देखना होगा सफल कौन होता है.

असल में ब्राह्मण यूपी का एक प्रभावशाली समाज है. बीजेपी सीधे सीधे हिंदुत्व कार्ड खेल रही है. बीजेपी के पास भगवान राम के मंदिर का मुद्दा है, मोदी का चेहरा है और योगी जैसा भगवाधारी संत है. ऐसे में बीजेपी के हिंदुत्व के बरक्स विपक्ष किसी भी तरह ब्राह्मणों समेत अन्य नाराज़ जातियों को लुभाने में लगी है.

विकास दूबे एनकाउंटर और उसके बाद कई ऐसे अपराधी, जो ब्राह्मण समाज से आते हैं, उनपर हुई कार्रवाई को आधार बनाकर यूपी में ये कोशिश हो रही है कि ये साबित किया जाए कि योगी सरकार ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ है. इसी मौके को देखते हुए सबसे पहले सपा ने और फिर बसपा ने परशुराम के बहाने ब्राह्मणों को अपनी तरफ जोड़ने की कोशिश की है, देखना होगा 2022 में किसका पलड़ा भारी रहता है.

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