रोहिंग्या मुसलमानों से जुड़े पोस्ट, अकाउंट डिलीट कर रहा है फेसबुकः रिपोर्ट
फेसबुक कथित तौर पर म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के 'जातीय संहार' पर लिखी जाने वाली सामाजिक कार्यकर्ताओं की पोस्ट हटा रहा है और इन कार्यकर्ताओं के अकाउंट तक सस्पेंड कर रहा है. 'डेली बीस्ट' ने यह जानकारी दी है.
सैन फ्रांसिस्को: फेसबुक कथित तौर पर म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के 'जातीय संहार' पर लिखी जाने वाली सामाजिक कार्यकर्ताओं की पोस्ट हटा रहा है और इन कार्यकर्ताओं के अकाउंट तक सस्पेंड कर रहा है. 'डेली बीस्ट' ने यह जानकारी दी है. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा है कि उनके अकाउंट को बंद किया जा रहा है या पोस्ट को हटाया जा रहा है. उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि फेसबुक उन्हें सच बोलने देगा.
म्यांमार रोहिंग्या मुसलमानों को बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी मानता है जबकि बांग्लादेश उन्हें म्यांमार का नागरिक मानता है. म्यांमार की सरकार 'रोहिंग्या' शब्द का इस्तमाल नहीं करती और उनको एक आधिकारिक जाति के रूप में मान्यता नहीं देती. जिसका मतलब है कि उन्हें नागरिकता नहीं दी गई है और जिसका अर्थ यह है कि रोहिंग्या एक तरह से देशविहीन हो गए हैं. उनके पास इस वक्त दुनिया के किसी देश की नागरिकता ही नहीं है.
फेसबुक की प्रवक्त रुचिका बुधराजा ने बुधवार को डेली बीस्ट से कहा, "हम चाहते है कि फेसबुक एक ऐसी जगह बने जहां लोग विश्वसनीय ढंग से चीजें साझा हों. हम अभियक्ति को सक्षम बनाने और साथ ही सुरक्षित एवं सम्मानजनक अनुभव देते रहने के बीच सही संतुलन बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं."
बुधराजा ने कहा, "म्यांमार की स्थिति के संदर्भ में हम सावधानी के साथ हमारे सामुदायिक मानकों के हिसाब से कंटेंट की समीक्षा कर रहे हैं."
रहीम नाम का इस्तमाल करने वाले एक कार्यकर्ता ने कहा कि बार-बार उनके खाते को बंद करने के अलावा फेसबुक रोहिंग्या शरणार्थियों पर किए गए उनके व्यक्तिगत पोस्ट को भी हटा देता है. पोस्ट को हटाए जाने के बाद फेसबुक का संदेश कहता है, "हमने इस पोस्ट को हटा दिया है क्योंकि यह फेसबुक के समुदाय मानकों का पालन नहीं करता है."
म्यांमार में इस तरह की कई घटनाएं सामने आई हैं.
कौन हैं रोहिंग्या और क्यों छिन गई है नागरिकता?
म्यांमार में 12वीं सदी से मुसलमान आबाद हैं, लेकिन रोहिंग्या का इतिहास शुरू होता है 190 साल पहले. 1824-1948 के बीच करीब 125 साल म्यांमार में ब्रिटिश हुकूमत रही. इस दौरान बड़ी संख्या में आज के भारत और बांग्लादेश से म्यांमार में मजदूर बुलाए गए. तब इस पलायन को अंदरूनी पलायन कहा गया, क्योंकि तब ब्रिटिश हुकूमत म्यांमार को भारत का एक हिस्सा मानती थी, हालांकि, इस पलायन से म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी नाराज़ थी. जब 1948 में म्यांमार को आजादी मिली तो रोहिंग्या के लिए ये आज़ादी जुल्म की दास्तान के आगाज़ की शुरुआत बनी. आज़ादी के बाद म्यांमार की सरकार ने ब्रिटिश दौर के पलायन को गैर कानूनी माना और इस तरह रोहिंग्या को नागरिकता देने से इनकार कर दिया. आज़ादी के बाद म्यांमार ने यूनियन सिटिजनशिप एक्ट लाया, जिसमें उन जातीय समूहों की फेहरिस्त दी जिसे नागरिकता मिलेगी, लेकिन उसमें रोहिंग्या को शामिल नहीं किया गया. हालांकि, उस कानून के तहत जो परिवार बीते दो पीढ़ियों से म्यांमार में रह रहे थे, है उसे पहचान पत्र दिया गया. शुरू में उन्हें पहचान पत्र या नागरिकता भी मिली, संसद में भी चुने गए. लेकिन 1982 से इनकी नागरिकता पूरी तरह से छीन ली गई है, जिसके बाद अब ये किसी देश के नागरिक नहीं हैं. लेकिन 1982 में पूरी तरह से नागरिकता छीने जाने से पहले 1962 में म्यांमार में सैन्य तख्तापलट हुआ. तभी रोहिंग्या के लिए ज्यादा मुश्किलों की शुरुआत हुई. सभी नागरिकों के लिए नेशनल रजिस्ट्रेशन कार्ड लाजमी किया गया. तब रोहिंग्या को विदेशी पहचान पत्र दिया गया, शिक्षा और नौकरी के दरवाज़ करीब-करीब बंद कर दिए गए.