नई दिल्ली: दुनियाभर में यूजर्स के डेटा की सिक्योरिटी को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है. बहस ये कि यूजर्स के डेटा को सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां किस हद तक एक्सेस कर सकती हैं और इसके साथ कंपनियों का ये तर्क की यूजर्स अपने प्राइवेट डेटा के एक्सेस की इजाजत पॉलिसी को अपनी सहमति देकर देते है. हालांकि कंपनियां ये नहीं कहती कि उनकी पॉलिसी कितनी धुमावदार होती हैं और इस बहस के बीच ही टेलीकॉम रेगूलेटरी ट्राई ने साफ किया है कि यूजर के डेटा पर सुप्रीम हक उनका ही है ना की डेटा टेलीकॉम कंपनियों का अधिकार है. इसके अलावा टेलीकॉम कंपनियों को यूजर्स के मेटा डेटा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए साथ ही अगर इन डेटा से जुड़ी किसी भी ब्रीच (लीक) की जानकारी यूजर्स को होनी चाहिए.
16 जुलाई को ट्राई ने टेलीकॉम सेक्टर में डेटा की प्राइवेसी , सेक्योरिटी और ओनरशिप को लेकर 77 पेज के सुझाव सरकार को सौंपे हैं. इस सुझाव में कहा गया है कि डेटा सेक्योरिटी को लेकर मौजूदा नियम पर्याप्त नहीं है. सरकार को इस सिलसिले में अक नई पॉलिसी बनानी चाहिए, जो डिवाइस, ऑपरेटिंग सिस्टम, ब्राउजर और एप को रेगूलेट करें. इसके साथ ही ट्राई ने कहा है कि सरकार को मोबाइल डिवाइस कंपनियों और एप को प्राइनमरी लॉ के अंतर्नगत लाना चाहिए जो अब तक टेलीकॉम कंपनियों को गवर्न करती हैं.
हालांकि ये ट्राई की ओर से दिया गया सुझाव है जिसे मानना या ना मानना सरकार का फैसला है. इस मुद्दे को ट्राई ने इसलिए उठाया क्योंकि बीते कुछ महीनों में फेसबुक डेटा ब्रीच सहित कई यूजर डेटा लीक ने दुनिया को इस बड़ी परेशानी से रूबरू कराया. भारत में डेटा को लेकर ये चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि देश में हर 10 दिन में एक साइबर क्राइम की खबर सामने आती है.
ट्राई के ये सुझाव जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण कमेटी के डेटा प्राइवेसी पर आना वाले सुझावों के ठीक पहले सामने आए हैं. ट्राई के ये सुझाव कमेटी के डेटा प्रोटेक्शन फ्रेम वर्क को और बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं और संभव है कि इस नए फ्रेमवर्क के प्रभावी होने के बाद देश में एमेजन, फेसबुक , एपल और गूगल की कार्यशैली इससे प्रभावित हों.
ट्राई के मुताबिक एपल, फेसबुक गूगल सहित इन कंपनियों के यूजर एग्रीमेंट समझने में काफी कठिन होते हैं और इसे सरल भाषा में होना चाहिए, इसके अलावा ये अभी सिर्फ अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध होते हैं इन्हें हिंदी सहित दूसरी भाषा में भी उपलब्ध होना चाहिए. इसके अलावा इसकी प्राइवेसी के साथ 'प्री ट्रिक्ड बॉक्स' भी नहीं देना चाहिए इससे यूजर्स बिना पड़े कंपनियों की पॉलिसी को सहमति दे देते हैं. ट्राई का कहना है कि यूजर इस सहमति के मायने नहीं समझते और अक्सर जल्दबाजी में सर्विस को इस्तेमाल करने के लिए अपनी सहमति दे देते हैं.
भारत में पहली बार 'Right to be Forgotten' टर्म का इस्तेमाल
ट्राई के सुझाव में कहा गया है कि कंपनियों को यूजर के डेटा को कंट्रोल करने के लिए यूजर को स्पष्ट रुप से अपनी पॉलिसी बताकर उसपर सहमति लेने के बाद डेटा बेस तैयार करना चाहिए. वहीं, यूजर्स को भी कंपनियों को डेटा एक्सेस देने के बाद ये अधिकार होना चाहिए कि वो ये देख सकें उनके डेटा का इस्तेमाल कहां किया जा रहा है. यहां यूजर्स ये भी चुन सकें कि कौन सा डेटा कहां शेयर हो और कौन सा डेटा कंपनियों से वापस लेना है. यानी एक बार एक्सेस देने के बाद भी डेटा यूजर वापस ले सकें, इसे कंपनी ने 'Right to be Forgotten' कहा है.
ये पहली बार है जब भारत में किसी अथॉरिटी ने 'Right to be Forgotten' अधिकार का जिक्र किया है. ये एक अधिकार है जिसमें यूजर के पास ये हक होता है कि वह कंपनी से कभी भी अपना दिया हुआ डेटा डिलीट करने के लिए कह सकता है. इसमें तस्वीर, कॉल डीटेल, वीडियो जैसे डेटा शामिल होते हैं जो यूजर्स के लिए काफी व्यक्तिगत होते हैं.