Dosa seller income India: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पहले ट्विटर) पर नवीन कोप्परम नाम के सोशल मीडिया यूजर का पोस्ट इस वक्त सुर्खियों में है. उन्होंने लिखा कि उनके घर के पास मौजूद एक डोसा वेंडर करीब 20 हजार रुपये कमाता है. इस हिसाब से उसकी कमाई छह लाख रुपये महीना है. अगर सभी खर्च आदि हटा दिए जाएं तो वह हर महीने तीन से साढ़े तीन लाख रुपये घर ले जाता है. नवीन के इस पोस्ट के बाद सोशल मीडिया पर हलचल मची हुई है. साथ ही, कमाई में असमानता और टैक्स ऑब्लिगेशन को लेकर बहस छिड़ गई है. इसके अलावा नौकरी और कारोबार करने के फायदे-नुकसान पर भी चर्चा हो रही है.
पोस्ट में लिखी थी यह बात
कोप्परम ने अपने पोस्ट में लिखा, 'मेरे घर के पास एक स्ट्रीट फूड डोसा वेंडर है, जो रोजाना करीब 20 हजार रुपये का डोसा बेच देता है. इस हिसाब से देखा जाए तो वह महीने में करीब छह लाख रुपये का कारोबार करता है. अगर वह अपने सारे खर्चों को हटा दे तो भी हर महीने तीन से साढ़े तीन लाख रुपये बचा लेता है और वह एक रुपया भी टैक्स नहीं भरता है.' दरअसल, नवीन की जिस बात ने लोगों का ध्यान खींचा, वह 60 हजार रुपये महीने की नौकरी करने वाले कर्मचारी से डोसे वाले की तुलना करना. दरअसल, हर महीने 60 हजार रुपये कमाने वाले को 10 पर्सेंट टैक्स देना पड़ता है, जबकि सड़क पर दुकान लगाने वाले को लाखों रुपये कमाने के बाद भी टैक्स नहीं देना पड़ता है.
सोशल मीडिया यूजर्स ने ऐसे किया रिएक्ट
नवीन की इस पोस्ट से सोशल मीडिया पर हंगामा मच चुका है. उन्होंने लिखा, 'इस पर गौर करने से पहले डॉक्टरों, वकीलों, चाय बेचने वालों, गैरेज चलाने वालों और शहर के कमर्शियल इलाकों में दुकान चलाने वालों पर भी ध्यान देने की जरूरत है. इनमें से अधिकतर विदेशों में छुट्टियां मनाने जाते हैं. अपना घर रेनोवेट कराते हैं या नया घर खरीदते हैं. इसके अलावा हर साल नई गाड़ी भी परचेज करते हैं, लेकिन एक रुपया भी टैक्स नहीं देते. कैसे और क्यों?'
दूसरे यूजर ने किया पलटवार
दूसरे यूजर ने इस पर पलटवार भी किया. उसने लिखा, 'ऐसे लोगों को कॉर्पोरेट इंश्योरेंस नहीं मिलता. उन्हें कार, होम और बाइक लोन लेने में मुश्किल होती है. इसके अलावा न ही उनका पीएफ है और न ही एश्योर्ड इनकम. इसके अलावा वे हर साल इतना ज्यादा जीएसटी जमा करते हैं, जितना टैक्स 60 हजार रुपये कमाने वाला सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी नहीं देता है. अंग्रेजी बोलने वाले ट्विटर यूजर्स को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि उनके आईटीआर भरने की वजह से ही देश चल रहा है.'
एक अन्य यूजर ने लिखी यह बात
एक अन्य यूजर ने लिखा, 'यही समस्या है. नोटबंदी के बाद जब यूपीआई शुरू हुआ तो यह काफी ज्यादा कॉमन हो गया. मुझे लगता है कि अब सरकार के पास हर किसी का डायरेक्ट डेटा होता है, जबकि पहले कैश पेमेंट की वजह से ऐसा नहीं होता था. ऐसे में स्ट्रीट वेंडर्स को भी आयकर के दायरे में लाना आसान हो गया है. हालांकि, सरकार ने कभी इस पर अमल नहीं किया और वह सिर्फ जीरो आय वाले आईटीआर में इजाफे से खुश है.'
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