मुगल बादशाह अकबर को धर्मों में काफी दिलचस्पी थी और वह दूसरे धर्मों के बारे में जानने के लिए काफी उत्सुक रहते थे. इसी के चलते उनकी ईसाइयत को लेकर रुचि बढ़ी
टैक्स चोरी करने वालों के खिलाफ दो जैसुएट पादरियों ने आवाज उठाई तो इसकी खबर अकबर को मिली. जैसुएट का काम ईसाई धर्म का प्रचार करना होता है
अकबर को लगा कि धर्म के बारे में जानना चाहिए, जिसमें इतने ईमानदार लोग हैं कि टैक्स चोरी के लिए आवाज उठा रहे हैं. तब पादरियों को फतेहपुर सीकरी बुलाया गया
28 फरवरी, 1580 को पादरी अपनी धार्मिक किताब बाइबल के साथ मुगल दरबार में पहुंचे, जहां इस्लाम और दूसरे धर्म के विद्वानों को भी बुलाया गया था
बादशाह अकबर से मिलने के बाद पादरियों ने उन्हें सुनहरे रंग के डिब्बे में एक बाइबल भेंट की
दरबार में अकबर के बुलाए गए अलग-अलग धर्म के जानकारों और गोवा से आए पादरियों के बीच चार दिन तक बहस चली
पादरियों ने लगभग तीन साल आगरा में गुजारे. उन्होंने कई बार अकबर को अपने धर्म की तरफ आकर्षित करने की कोशिश की, लेकिन अकबर ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई
पादरियों को विश्वास हो गया कि अकबर नहीं मानेंगे तो वह वापस लौट गए. 8 साल बाद 1590 में अकबर ने जैसुएट को फिर से अपने दरबार में लाहौर बुलाया
जैसुएट फिर ईसाई धर्म की तरफ आकर्षित करने की इच्छा लेकर आए, लेकिन अकबर अपने रुख पर कायम थे और पादरियों को अपने बेटों को पुर्तगाली भाषा सिखाने के काम पर लगा दिया
3 सितंबर 1595 को लिखे एक पत्र के अनुसार अकबर ने पादरियों को लाहौर में चर्च बनाने और लोगों को ईसाई धर्म में दीक्षित करने की इजाजत दे दी. 7 सितंबर, 1597 को पहली बार इस चर्च में प्रार्थना हुई