मुगल शासन के इतिहास में अकबर ऐसे शासक हुए, जो इस्लाम के साथ हिंदू, ईसाई, पारसी समेत अन्य धर्मों में भी रुचि लेते थे



इसके चलते ही उन्होंने चर्च बनाने और ईसाई धर्म में लोगों को दीक्षित करने की अनुमित दी. आइए जानते हैं इसके पीछे की कहानी क्या है



1580 की बात है. टैक्स चोरी के खिलाफ दो जैसुएट ने आवाज उठाई और वे मुगलों की नजर में आ गए. जैसुएट का काम ईसाई धर्म का प्रचार करना होता है



यह सुनकर अकबर को ईसाई धर्म के बारे में जानने की इच्छा हुई इसलिए जैसुएट को बुलवाया. जैसुएट दरबार में पहुंचे और अकबर को पवित्र किताब बाइबल भेंट की



जैसुएट अकबर को अपने धर्म की तरफ आकर्षित करना चाहते थे, लेकिन अकबर ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई और जैसुएट गोवा वापस लौट गए



कुछ साल बाद 1590 में अकबर ने जैसुएट को लाहौर अपने दरबार में फिर बुलाया. जैसुएट ने फिर अकबर को ईसाइयत की तरफ आकर्षित करने की कोशिश की



ऐसा हुआ नहीं और अकबर ने जैसुएट को अपने बेटों को पुर्तगाली भाषा सिखाने की जिम्मेदारी दे दी



3 सितंबर, 1595 में लिखे एक पत्र के मुताबिक, अकबर ने जैसुएट डेलीगेशन को लाहौर में चर्च बनाने की इजाजत दे दी



साथ में इसकी भी अनुमति दे दी कि वह चाहें तो लोगों को अपने धर्म की दीक्षा दे सकते हैं. अकबर ने चर्च बनवाने के लिए शाही खजाने से कुछ रकम भी दी



7 सितंबर 1597 में पहली बार इस चर्च में प्रार्थना हुई. लाहौर के बाद अकबर ने आगरा में भी चर्च बनवाई, जिसका नाम 'अकबर की चर्च' रखा गया