साल 1597 में महाराणा प्रताप की मृत्यु हुई पर चित्तौड़ का किला वापस पाने की इच्छा अधूरी रह गई. तब यह जिम्मेदारी बेटे अमर सिंह पर आ गई. उधर, अकबर मेवाड़ जीतने का ख्वाब फिर से देखने लगा.



इसके बाद मुगलों और मेवाड़ की लड़ाई में अमर सिंह और अकबर के बेटे शहजादे सलीम का आमना-सामना होने लगा.



राम वल्लभ सोमानी की किताब हिस्ट्री ऑफ मेवाड़ के मुताबिक, साल 1599 में शहजादे सलीम ने मेवाड़ की तरफ हमला करना शुरु किया.



मुगल ताकत ज्यादा होने की वजह से सलीम ने कई राजपूत थानों को अपने कब्जे में कर लिया. महाराणा अमर सिंह ने धीरज रखकर जंग को लंबा खींचा और हारे हुए क्षेत्रों को दोबारा हासिल कर लिया.



साल 1603 में सलीम पहले से भी ज्यादा बड़ी मुगल सेना लेकर मेवाड़ की तरफ निकल पड़ा. दूसरी तरफ महाराणा अमर सिंह भी इंतजार में थे, लेकिन पता चला कि मुगल फौज फतेहपुर में ही ठहर गई है.



अकबर की मौत के बाद सलीम राजगद्दी पर बैठा. उसने मेवाड़ को घुटनों पर लाने के लिए कई बार संधि का प्रस्ताव भेजा, लेकिन महाराणा अमर सिंह ने बिना झुके संधि को ठुकरा दिया.



बार-बार मिल रही हार के बाद सलीम ने खुद युद्ध के क्षेत्र में उतरने का फैसला किया. सलीम ने पहले से भी ज्यादा ताकतवर और बड़ी फौज तैयार की.



सलीम फौज लेकर मेवाड़ के इलाके अपने कब्जे में किए जा रहा था. ये सब देखने के बाद ना चाहते हुए भी महाराणा ने अपनी कुछ शर्तों के साथ मुगलों से संधि कर ली.



शर्तें यह थीं कि महाराणा कभी मुगल दरबार में पेश नहीं होंगे. मुगल और मेवाड़ के बीच शादी के कोई रिश्ते नहीं होंगे. महाराणा को चित्तौड़ मिलेगा पर मुगलों की तरफ से चित्तौड़ के दुर्ग की मरम्मत नहीं की जाएगी.



संधि के 5 साल बाद 26 जनवरी, 1620 में महाराणा अमर सिंह की मृत्यु हो गई. सलीम ने महाराणा अमर सिंह और कुंवर कर्णसिंह की वीरता को देखते हुए उनकी मूर्तियां बनवाकर आगरा के किले में लगवा दीं.